________________
अध्याय ६ : १२६
योग से व्यक्ति के वीर्य-पराक्रम को बाल और पंडित कहा जाता है तथा अभेद-दृष्टि से वीर्यवान् व्यक्ति भी बाल और पंडित कहलाता है।
मनुष्य प्रवृत्ति-प्रधान है । प्रवृत्ति के बिना वह एक क्षण भी नहीं रह सकता। प्रवृत्ति के दो रूप हैं-शुभ और अशुभ । अशुभ प्रवृत्ति राग-द्वेष और मोहमय होती है। इसलिए उसे प्रमाद कहा जाता है। प्रमाद से अशुभ कर्म का संग्रह होता है। इससे आत्मा की स्वतन्त्रता छीनी जाती है। शुभ प्रवृत्ति संयम-प्रधान होने से प्रमाद रूप नहीं है। उससे पुण्य-कर्म का संग्रह होता है और पूर्वबद्ध कर्मों का निर्जरण भी। कर्म-क्षय की दशा में आत्मा कर्म-ग्रहण की दृष्टि से अकर्मा बन जाती है, किन्तु चेतना की क्रिया बन्द नहीं होती।
प्रमाद और अप्रमाद का प्रयोग जहां वीर्य-शक्ति के साथ होता है, वहां वह बाल-वीर्य और पंडित-वीर्य कहलाता है। बाल शब्द अबोधकता का सूचक है। पंडित की चेष्टाएं ज्ञानपूर्वक होती हैं। ज्ञान हिताहित का विवेक देता है। संयम हित है और असंयम अहित । असंयम का परिहार और संयम का स्वीकार ज्ञान से होता है। बाल-वीर्य की अवस्था में ज्ञान का स्रोत सम्यक दिशा-संयम की ओर नहीं होता। वहाँ असंयम की बहुलता रहती है। पंडित-वीर्य संयम-प्रधान होता है। उसमें अशुभ कर्म का स्रोत खुला नहीं रहता । आत्मा क्रमशः शुभ से भी मुक्त होकर अकर्मा बन जाती है
शक्ति के तीन स्रोत
प्रतीत्याविरति बालो, द्वयञ्य बालपण्डितः । विरतिञ्च प्रतीत्यापि, लोकः पण्डित उच्यते ॥२६॥
२६. अविरति की अपेक्षा से व्यक्ति को बाल, विरति-अविरति की अपेक्षा से बाल-पंडित और विरति की अपेक्षा से पंडित कहा जाता है।
शक्ति का केन्द्र आत्मा है। आत्मा की अक्रियाशीलता में वीर्य सजीव नहीं होता । वीर्य के तीन स्रोत हैं :
(१) जो सर्वथा संयम की ओर प्रवाहित होता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org