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________________ अध्याय ६ : १२१ दर्शनश्रावकाः केचिद्, तिनो नाम केचन। अगारमावसन्तोऽपि, धर्माराधनतत्पराः॥६॥ ___६. कई दर्शन-श्रावक (सम्यक्-दृष्टि) होते हैं, कई व्रती होते हैं । वे घर में रहते हुए भी धर्म की आराधना करने में तत्पर रहते हैं। इस प्रकार उपासक की चार कक्षाएं होती हैं : १. सूलभबोधि-धर्मप्रिय व्यक्ति । इनमें धर्म-कर्म सम्बन्धी मान्यताओं का ज्ञान नहीं होता किन्तु धर्म के प्रति आकर्षण होता है। वे धर्म का आचरण नहीं भी करते फिर भी उन्हें धर्म प्रिय लगता है। २. सम्यग्दृष्टि-जिनका दृष्टिकोण सम्यग् होता है और जो सत्यान्वेषण के लिए चल पड़े हैं उनको सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। __इसकी व्यावहारिक परिभाषा यह है कि जो जीव, अजीव आदि नौ तत्त्वों को जानते हैं वे सम्यग्दृष्टि होते हैं । ३. व्रती-जो उपासक के बारह व्रतों का यथाशक्ति पालन करते हैं वैसे व्यक्ति । ४. प्रतिमाधारी-प्रतिमा का अर्थ है विशेष अभिग्रह-प्रतिज्ञा। जो व्यक्ति उपा सक की ग्यारह प्रतिमाओं का पालन करते हैं, वे प्रतिमाधारी कहलाते हैं। गृहस्थ की ये चार कक्षाएं हैं। ये उत्तरोत्तर विकसित अवस्थायें हैं। उपासक पहले सुलभबोधि होता है। वह धर्म के संपर्क में आता है। कुछ जानता हैं और जब उसे दृढ़ निश्चय हो जाता है कि धर्म-कर्म, पुण्य-पाप, आत्मा आदि हैं, कर्म है, उनका फल है । तब वह सम्यग्दृष्टि की कक्षा में आता है। अब उसका मिथ्यात्व छूट जाता हैं और उसमें सत्य को जानने की उत्कट इच्छा उत्पन्न होती है। सत्यान्वेषण के लिए वह चल पड़ता है। उसके मन में संयमित जीवन जीने की लालसा उत्पन्न होती है। गृह-त्यागने में वह अपने आपको असमर्थ पाता है, तब वह अपनी शक्ति के अनुसार कुछेक व्रतों को स्वीकार करता है। धीरे-धीरे व्रतग्रहण का विकास कर वह बारहवती श्रावक बन जाता है। वह तीसरी कक्षा में आ जाता है । अब उसका व्यवहार, वर्तन और आचरण बहुत संयमित और सीमित हो जाता है। उसका गमनागमन, उपभोग-परिभोग आदि सीमाबद्ध हो जाते हैं, उसकी आकांक्षाएं अल्प हो जाती हैं और वह सांसारिक प्रवृत्तियों से अपने आपको बहुत विलग किए चलता हैं। जब उसके आसक्ति की मात्रा अत्यन्त क्षीण हो जाती है तब वह चौथी कक्षा में प्रवेश करता है । वह ग्यारह प्रतिमाओं का वहनकर अपनी आत्मशक्ति को तोलता है। इन प्रतिमाओं के वहन-काल में श्रमणभूत की-सी चर्या का पालन करता है, किन्तु अपने परिवार से उसका प्रेम विच्छिन्न नहीं होता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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