SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय ५ : ११३ धर्मश्रद्धा जनयति, विरक्ति क्षणिके सुखे । गृहं त्यक्त्वाऽनगारत्वं, विरक्तः प्रतिपद्यते ॥३७॥ ३७. धार्मिक श्रद्धा से क्षणिक सुखों के प्रति विरक्ति का भाव उत्पन्न होता है और विरक्त मनुष्य घर छोड़कर अनगार बनता है-मुनि-धर्म को स्वीकार करता है । संन्यास का आधार है-निस्पृहता । निस्पृहता का अर्थ है-वैराग्य। इस लिए वैराग्य को समस्त तपों का मूल कहा गया है । विशुद्धि के बिना तप का समाचरण नहीं होता। कष्टों की स्वीकृति वही कर सकता है जो विरक्त है। विरक्त के तीन रूप हैं...दुःखात्मक, मोहात्मक और ज्ञानात्मक । आचार्य हेमचन्द्र महावीर की स्तुति करते हुए कहते हैं..."हे प्रभो! अन्य व्यक्ति दुःख और मोहमूलक वैराग्य में प्रतिष्ठित रहते हैं, जबकि आप केवल ज्ञानमूलक वैराग्य में हैं। दुःखमूलक वैराग्य स्थायी नहीं होता । दु:ख की निवृत्ति के बाद वह समाप्त हो जाता है। तुलसीदास जी ऐसे व्यक्तियों के लिए कहते हैं"नारी मुई गृह सम्पति नासी, मूंड मुंडाय भये संन्यासी ।" । बाहरी दुःखों से ऊबकर अनगार बननेवाले रोटी, पानी, वस्त्र, मकान, भक्ति आदि से प्रसन्न हो अध्यात्म को खो बैठते हैं। वे फिर बहिर्दशा में लौट आते हैं। मोह-मूलक वैराग्य में भी कामनाएं अंतर में सुप्त रहती हैं । कामनाओं का उचित योग पाकर व्यक्ति विशेष रूप में उन्हीं में आसक्त हो जाते हैं । कामना का दौर इतना उग्र होता है कि हर एक व्यक्ति उससे मुक्त नहीं हो सकता । शंकराचार्य कहते हैं- "ज्ञानमूलक वैराग्य परिपक्व होता है। साधक आत्मस्थ और अनासक्त हो जाता है। त्याग की परिपक्वता स्थायी वैराग्य में आती है। स्त्री, परिजन, अर्थ, गृह और स्वशरीर के प्रति भी वह ममत्व का विसर्जन कर देता है। वह वितृष्ण बन यथार्थ सुख का अनुभव करता है। विरज्यमानः साबाधे, नाबाधे प्रयतः सुखे। अनाबाधसुखं मोक्षं, शाश्वतं लभते यतिः॥३८॥ ३८. जो मुनि बाधाओं से परिपूर्ण सुख से विरक्त होकर निधि सुख को पाने का यत्न करता है वह निर्बाध सुख से सम्पन्न शाश्वत मोक्ष को प्राप्त होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy