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________________ ८८ सम्बोधि बहिर्मुखी ब्यापार नहीं रुकता तब तक आत्मिक आनन्द का अंश भी प्रकट नहीं होता । कायिके वाचिके सौख्ये, तथा चैतसिकेऽपि च । रज्यमानस्ततश्चोऽवं न लोको द्रष्टुमर्हति ॥२७॥ २७. जो मनुष्य कायिक, वाचिक और मानसिक सुख में ही अनुरहता है वह उससे आत्रे देख नहीं सकता । आनन्द के बाधक तत्वों और उसके उद्घाटन की प्रक्रिया - दोनों का उपरोक्त पद्यों में स्पष्ट दर्शन है । मानवीय जीवन इन्द्रिय, मन और शरीर की परिक्रमा किये चलता है । मनुष्य केन्द्र की ओर नहीं मुड़ता । तेली का बैल कितना ही चले, पर पहुंचता कहीं नहीं है । व्यक्ति भी यदि शरीर, मन और इन्द्रियों की दिशा में कितना ही भ्रमण करता रहे, वह कभी अपने केन्द्र का स्पर्श नहीं कर तकता । परिधि का मुख कभी केन्द्र की ओर नहीं होता । परिधि पर आनन्द नहीं है । जैसे ही कोई व्यक्ति परिधि से हटकर केन्द्र की तरफ उन्मुख होता है उसकी गति बदल जाती है। बाहर से वह भीतर की तरफ मुड़ जाता है। प्रत्याहार प्रतिसंलीनता योग का जो एक अंग है, वह दिशा का परिवर्तन है । जैसे-जैसे वह केन्द्र के सन्निकट बढ़ता है, वह आनन्द की महान् राशि अपने भीतर देखने लगता है । उसकी वाणी मौन होने लगती है, शरीर स्थिर होने लगता है और चित्त निर्विचार | तीनों की चंचलता ही स्वयं को स्वयं से दूर किए हुए है। उनके स्थिर होते ही आनन्द का उत्स फूट पड़ता है । कबीर ने इस बात को इस प्रकार कहा है 1 'तन थिर, मन थिर, वचन थिर, सुरति निरत थिर होय । कहे कबीर उस पलक को, कलप न पावे कोय ॥ विहाय वत्स ! संकल्पान्, नैष्कर्मण्यं प्रतीरितान् । संयम्येन्द्रियसंघात - मात्मनि स्थितिमाचर ॥ २८ ॥ २८. वत्स ! नैष्कर्म्य - योग के प्रति तेरे मन में जो संकल्प-विकल्प हुए हैं उन्हें छोड़ और इन्द्रिय-समूह को संयत बनाकर आत्मा में अवस्थित वन | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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