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________________ 70 कैसी हो इक्कीसवीं शताब्दी? दो प्रकार के व्यक्तित्व होते हैं-भौतिक व्यक्तित्व और आध्यात्मिक व्यक्तित्व । अहंकार और ममकार की रेखाओं से जिस व्यक्तित्व का निर्माण होता है, वह भौतिक व्यक्तित्व होता है। जिस व्यक्तित्व का निर्माण सचाइयों के आधार पर होता है, काल्पनिक रेखाओं के आधार पर नहीं होता, वह आध्यात्मिक व्यक्तित्व होता है। __ समाज में सबसे बड़ा प्रश्न है सम्बन्धों का। व्यक्ति अकेला नहीं है। वह समाज का जीवन जी रहा है। सामाजिक जीवन का अर्थ है संबंधों का जीवन। सम्बन्ध ही सम्बन्ध । पदार्थ के साथ सम्बन्ध, परिवार के साथ सम्बन्ध, गाँव और राष्ट्र के साथ सम्बन्ध । इन संबंधों की पूरी श्रृंखला है। सामाजिक प्राणी इस श्रृंखला से बंधा हुआ है। आध्यात्मिक व्यक्ति भी संबंधों को सर्वथा छोड़ नहीं सकता। जब तक जीवन यात्रा चलती है तब तक संबंध भी बने रहते हैं। वे छूटते नहीं। सदेह अवस्था में संबंध नहीं छूटते। विदेह अवस्था में संबंध नहीं रहते। जब तक शरीर है, इन्द्रियां हैं, मन है तब तक सारे संबंध छोड़े नहीं जा सकते। संबंधों का जीवन आध्यात्मिक व्यक्ति को भी जीना पड़ता है। पर दोनों के जीवन में बड़ा अन्तर होता है। भौतिक व्यक्ति अहंकार और ममकार के साथ संबंध जोड़ता है। उसका कोई भी संबंध ऐसा नहीं होता, जिसकी पृष्ठभूमि में अहंकार या ममकार की परछाईं न हो। 'मैं हूं'-यह अनुभूति शाश्वत की अनुभूति है। अपने अस्तित्व की अनुभूति है-अहं अस्मि-'मैं हूं।' किन्तु आदमी जब अहंकार के साथ जुड़ता है तब मैं हूं-यह अस्तित्व के साथ जुड़ा हुआ प्रयोग नहीं होता, प्रतिष्ठा-पद के साथ जुड़ा हुआ प्रयोग होता है। 'मैं हूं' का अर्थ तब हो जाता है- 'मैं धनवान हूं', 'मैं शासक हूं', 'मैं शक्तिशाली हूं' आदि-आदि। अस्तित्व-बोध का अहं खतरा पैदा नहीं करता किन्तु दूसरे अहं बहुत बड़े खतरे पैदा कर देते हैं। अहं व्यक्ति को बांट देता है। यह छोटा है, मैं बड़ा हूं। यह नौकर है इसलिए छोटा है, मैं मालिक हूं इसलिए बड़ा हूं। आदमी आदमी के बीच एक भेदरेखा खिंच जाती है। आदमी को विभक्त करने वाली पहली रेखा है अहंकार । वह अपने आपको एक रूप में देखता है, दूसरे को दूसरे रूप में। मैं कुलीन हूं, यह कुलीन नहीं है। मैं स्पृश्य हूं, यह अस्पृश्य है। ये सारी भेदरेखाएं अहंकार के आधार पर खिंची हुई हैं। पूरा समाज इन रेखाओं से भरा पड़ा है। प्रारम्भ में समाज चतुर्वर्ग-चार वर्गों में ही विभक्त था। उसके अवान्तर विभाग और भेदरेखाएं इतनी हो गईं कि आदमी कहां है, यह पता ही नहीं चलता, आदमी को कभी पहचाना ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003123
Book TitleKaisi ho Ekkisvi Sadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages142
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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