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________________ विद्या से अभिमंत्रित वास की मुठियां माला पहिनने वाले के शिर पर डालने के लिए तैयार रखे और नन्दी की क्रिया के अन्त में गुरु "तो जगगरूण जिणिंदाण पूएगदेसानो गंधहाऽ मिलाणसियमल्लदामं गहाय सहत्थेणोभयखंधेसु मालमारोवेमाणेण गुरुणा णीसंदेहमेवं भाणियव्वं जहा-भोभो ! जम्मंतरसंचियगुरुय पुण्णपब्भार सुलद्धसंविढत्तसुसहलं मणुसजम्मं देवाणुष्पिया ! ठइयं च णिरयतिरियगइदारं तुझंति, अबंधगो य अयस-अकित्तिणीयागोत्तकम्मविसेसाण तुमं ति ।" ____ अर्थात्–'उसके बाद जगद्गुरु जिनेन्द्र के एक पूजा भाग से सुगन्ध अम्लान श्वेत पुष्पमाला को लेकर अपने हाथों से दोनों कन्धों पर माला को आरोपण करते हुए गुरु को ऐसे बोलना चाहिए-भो ! देवानुप्रिय ! जन्मान्तर में संचित महापुण्यसमूह से प्राप्त तुम्हारा मनुष्य जन्म आज सफल हुआ है, हे महाभाग ! तुमने नारकतिर्यग्गति के द्वार बन्ध किये और अब से तुम अयशः, अकीति, नीचैर्गोत्रादि कर्म विशेषों के अबन्धक हो गये, यह कहकर गुरु तथा संघ माला परिधायी के शिर गंधाढ्य वास की मुठियां डालें और सर्व "नित्थार पारगो हवेज्जा" यह आशीर्वाद दें। अज्ञान दशा में पंच मंगल पढने का अधिकार नहीं है-- ___ "गोयमा जे णं बाले जाव अविण्णायपुण्णपावविसेसे तावण से पंचमंगलस्स ण गोयमा ? एगंतेणं अश्रोगे, ण तस्स पंचमंगल महासुयक्खधं दायव्वं न तस्स पंचमंगलमहासुयक्खंधस्स एगमवि आलावगं दायव्वं ।" __ अर्थात्--'भगवान् ने कहा-गोतम ! जो मनुष्य अज्ञान है, जीव, अजीव, पुण्य, पाप आदि को जानता नहीं' है, वह पंचमंगल पढने के लिए सर्वथा अयोग्य है, उसको पंचमंगल महाश्रुत का एक आलापक भी नहीं देना चाहिए, क्योंकि अनादि भवपरंपरा में समुपाजित अशुभ कर्म राशि को जलाने का परम साधन पंचमंगल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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