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________________ अप्काय पर रहा हुआ अशन पान ग्रहण करे, अग्निकाय पर रहा हुआ अशन, पान ग्रहण करे, वनस्पति काय पर रहा हुआ अशन, पान, ग्रहण करे। ____जो भिक्षु तुरन्त बनाया हुआ उत्स्वेदिम, संस्वेदिम, चाउलोदक, तिलोदक, तुषोदक, जवोदक, आचाम, सौवीर, खट्टा कंजिक, शुद्ध गर्म जल, जिसमें अम्लता पैदा नहीं हुई हो और अपरिणत हो अनपध्वस्तयोनिक हो ग्रहण करता है । __ जो भिक्षु आचार्य पन के लक्षण अपने में कहता है, जो भिक्षु गाये, हंसे, बजाये, नाचे, घोड़े की तरह हिनहिनाये, हाथी की तरह चिंघाड़े, सिंहनाद करे, अथवा करने वाले का समर्थन करे। ___ जो भिक्षु भेरी, पटह, मुख, मृदंग, नन्दी, झल्लरी, वल्लरी, डमरू, मड्डय आदि अनेक प्रकार के शब्द कान में पड़ने पर अपना लक्ष्य उस तरफ खींचे। जो भिक्षु वीणा, वीपंची, तूण, तुंबवीणादि के शब्दों को सुनकर अपना चित्त उस तरफ लगाये । ___ जो भिक्षु कांस्यताल, गोधिका, मकरिका, कच्छपी आदि के शब्द सुनकर अपने ध्यान को उन पर स्थिर करे। जो भिक्षु शंख, वांस, खरमुखी आदि शुषिरवाद्यों के शब्द सुनकर उस तरफ चित्त लगावे । जो भिक्षु कोट, खाई, तलैया, निर्भर, पुष्करणी, वापी, सरोवर, सरोवरपंक्ति आदि की बातें सुनकर देखने के लिए जाए। जो भिक्षु कच्छ, गहनवन, वनविदुर्ग, पर्वत, पर्वतविदुर्ग की बातों को सुनकर मन को उस तरफ लगाये। जो भिक्षु गांव, नगर, कपट, द्रोगमुखों की बातें सुनकर उस तरफ मन खींचे। जो भिक्षु गांव, नगर, कर्पटादि के उत्सवों की बातें सुनकर उस तरफ हृदय लगाये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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