SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'मासकल्पादि की समाप्ति के पहले ही विहार करदें तो दोष नहीं, इसके अतिरिक्त अन्यक्षेत्र में साधुओं के लिए उपधि और पात्रों के लिए लेपादि सुलभ हों, अथवा अपने गच्छ, आचार्यादि के लिए गन्तव्य क्षेत्र विशेष अनुकूल हो तो इन आगाढ कारणों से पूर्व क्षेत्रों में से पहले भी विहार करदें तो दोष नहीं, क्योंकि ये सब कारणिक विहार हैं।' उक्त अशिवादि में से कोई कारण न हो, उत्तरापथ के धर्मचक्र मथुरा के देवनिर्मित स्तूप, अयोध्या की जीवन्तस्वामी प्रतिमा, तीर्थंकरों की जन्म दीक्षा ज्ञान निर्वाण भूमियों आदि की यात्रा के निमित्त योग्य क्षेत्रों को छोडता हुआ विहार करे तो वह निष्कारणिक विहार है। ___ उपर्युक्त गाथा और इसकी चूणि का तात्पर्यार्थ इतना ही है कि कि साधु को योग्य निर्वाह करने लायक क्षेत्रों को बीच में छोड़कर निष्कारण अथवा तीर्थयात्रादि के निमित्त आगे नहीं जाना चाहिए, "इस गाथा और इसकी चूणि में इस बात की गन्ध तक नहीं है कि जहां तीर्थ हो अथवा तीर्थंकरों की कल्याणक भूमियां हों, वहां साधु को विहार ही नहीं करना चाहिये ।" उक्त गाथा और इसकी चूणि का भाव लेकर पण्डित मालवणिया ने जो भाष्यकार का उत्तरापथ में जाना वजित माना है, वह उनकी समझ का विपर्यास मात्र है। व्यवहार सूत्र तथा प्रकल्पाध्ययन में साधुओं के विहार योग्य क्षेत्रों की जो सीमा बताई है उसके भीतर वे सभी देशों में विहार कर सकते हैं और विहार दरमियान आनेवाले तीर्थों की यात्रा भी कर सकते हैं, मात्र तीर्थ यात्रा निमित्तक साधुओं का भ्रमण निषिद्ध किया है। पूर्वोक्त २९२७ वीं भाष्य गाथा और इसकी चूणि से ध्वनितार्थ निकालकर पण्डित मालवणिया कहते हैं "उक्त प्रदेशों में भाष्य नहीं लिखा गया, संभवत: वह पश्चिम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy