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________________ ७ वीं शती का मध्यभाग है, "जीतकल्प" की चूणि में सिद्धसेन ने जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण की जिन शब्दों में स्तुति की है, उससे यही सूचित होता है कि चूर्णिकार सिद्धसेन या तो जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के शिष्य होने चाहिए, अगर ऐसा नहीं है तो उनके प्रतीच्छक तो होने ही चाहिए, इस परिस्थिति में सामान्य चूर्णिकार सिद्धसेन का सत्तासमय विक्रम की सातवीं शती के उत्तरार्द्ध के परवर्ती नहीं हो सकता और सामान्य चूर्णिकार सिद्धसेन सातवीं शताब्दी के व्यक्ति हों तो, विशेष चूर्णिकार आचार्य जिनदास गणि आठवीं शती के ही ग्रन्थकार हो सकते हैं, पहले के नहीं। ____ भारत में चलने वाले ताम्र, रुप्य और सुवर्ण के सिक्कों का वर्णन करते हुए गणिमहत्तरजी ने निशीथ के दशम उद्देशक में रूप्यमय सिक्कों का निर्देश करते हुए लिखा है- “रूप्पमयं जहा भिल्लमाले वम्मलातो" . अर्थात्-‘रुप्यमय नाणक जैसे भीनमाल में “वर्मलात" नामक रुपया चलता है।" विशेष चूणि के उक्त उल्लेख के अनुसार जिनदास गणि महत्तर भीनमाल में वर्मलात नामक रुपया चलता था उस समय के व्यक्ति हैं, भीनमाल के राजा वर्मलात का एक शिलालेख वसन्तगढ से मिला है, जो विक्रम की सातवीं शति के चतुर्थ चरण का है, सातवीं शती के चतुर्थ चरण में राजा वर्मलात विद्यमान था तो उसका चलाया हुआ रुप्य नाणक उसके बाद भी चलता रहा होगा, क्योंकि इस प्रदेश में कई राजाओं के नाम के रुप्यक सिक्के उनके परलोक वास के बाद भी सौ-सौ वर्षों से अधिक समय तक चलने के दृष्टान्त मिलते हैं, इस परिस्थिति में भीनमाल में “वर्मलात रुपया" भी आठवीं शती तक चलता रहा हो तो कोई आश्चर्य नहीं है, प्रसिद्ध प्रतापी राजा के नाम का सिक्का उसके बाद अन्य राजा उस प्रदेश का स्वामी बन जाय तब वहां का प्रचलित नाणा भी बदलता है, यह परम्परा इस प्रदेश में विक्रम की २०वीं शती के मध्य भाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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