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________________ करते हुए को अनुमोदन दें, उसको अनुद्घातित मासिक परिहार स्थान प्राप्त होता है।' मूल सूत्र में “चिलिमिलि' दो प्रकार की बतायी है, परन्तु उस समय यह पांच प्रकार की होती थी, सूत्रमयी, रज्जुमयी, बल्कलमयी, दण्डमयी और कटमयी, ये पांचों प्रकार की "चिलिमिलियां' गच्छ के लिए उपकारक होती थीं। __ "चिलिमिलि" का दैर्ध्य और विस्तार क्रमशः पांच हाथ और तीन हाथ का होता था, यह प्रमाण "ऊर्णामयी चिलिमिलि" का होता था, अथवा उसके अभाव में अलसीका उपयोग करते तो परिमाण यही होता, इस परिमाण की “चिलिमिलि" एक-एक व्यक्ति के लिए उपयोगी हो सकती थी, गच्छ के लिए गच्छ को ढांक सके इतनी बड़ी "चिलिमिलि' रखनी पड़ती थी, यह 'चिलिमिलि" किस लिए रखी जाती थी इसका खुलासा देते हुए भाष्यकार कहते हैं: "खुले मकान में गृहस्थों का आगमन होने पर 'चिलिमिलि' बीच में बांधी जाती थी, स्वाध्याय के समय पास में आने वाले प्राणियों को रोकने के लिए, बीमार को गड़बड़ से बचाने के लिए, श्वापदादि से गच्छ को बचाने के लिए, लम्बी विहार यात्रा में अचिन्तित कार्य उपस्थित होने पर, किसी के मरने पर ओट का काम देती थी, वर्षा के समय में मौसमी हवा पानी से बचने के लिए आवरण का काम देती थी, इस प्रकार गच्छ में यह 'चिलिमिलि' सदा काम में आती थी।" उक्त पांच प्रकार की “चिलिमिलियों' में से जिस "चिलिमिलि" की विशेष आवश्यकता हो वह यदि मिल जाय तो ले लेना चाहिए, यद्यपि “कल्पसूत्र'' के प्रथम उद्देशक के सूत्र १४ वें और १६ वें में भी "चिलिमिलि'' रखने की निग्रन्थ निर्ग्रन्थिनियों को छूट दी है, परन्तु वहां विशेष विवरण नहीं है, तैयार मिलती तो ले लेते थे, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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