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________________ निबन्ध-निचय : ६५ प्रसन्नता पूर्वक जालोर आने का निश्चय कर विहार किया और जालोर पहुंच भी गए । उधर शान्तिदास सेठ ने सर्व प्रथम अपने गुरु से देवसूरिजी के साथ शास्त्रार्थ करने की बात कही, तब उन्होंने स्वीकार किया था, कि विजयदेव सूरिजी अपने स्थान से शास्त्रार्थ करने के भाव से थोड़े बहुत इधर आ जाएँगे तो मैं भी उनके पास जाकर शास्त्रार्थ कर लूंगा । विजयदेव सूरिजी को बुलाने जाने वाले शान्तिदास के मनुष्यों ने अहमदाबाद जाकर सेठ को कहा— श्री विजयदेव सूरिजी शास्त्रार्थ करने के लिए जालोर या पहुंचे हैं और आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं । अतः आप श्री मुक्तिसागरजी को साथ में लेकर जालोर पधारिये । सेठ शान्तिदास ने अपने गुरू श्री मुक्तिसागरजी को शास्त्रार्थ करने के लिये आने को लिखा, पर उन्होंने उसका कोई उत्तर नहीं दिया और न अपने स्थान से कहीं गए । इस वृत्तान्त से सेठ शान्तिदास तथा अन्य विरुद्ध प्ररूपक सागरों के भक्त निराश हुए और धीरे धीरे उनका साथ छोड़ कर देवसूरिजी की आज्ञा मानने वाले सागर साधुनों का गुरू के रूप में अपनाया | कोई आचार्य उपाध्याय श्रीं धर्मसागरजी के अप्रामाणिक ग्रन्थों का प्रचार करने के कारण उपाध्यायजी के परवर्ति शिष्य-प्रशिष्यादि ने अपनी एक स्वतन्त्र परम्परा स्थापित कर ली थी । यद्यपि उनमें नहीं था । धर्मसागरजी की तरह उनके शिष्य भी उपाध्याय ही कहलाते रहे, परन्तु विजय - परम्परा में विजयदैव सूरि, विजय आनन्द सूरि के नाम से दो परम्पराएँ प्रचलित हुईं । उसी समय में सागरों ने भी अपनी एक स्वतन्त्र परम्परा उद्घोषित की और उसका संबन्ध विजयसेन सूरिजी से जोड़ा । विजयसेन सूरिजी के समय में वास्तव में सागर - नामक कोई प्राचार्य ही न था, उपाध्याय परम्परा ही चल रही थी । परन्तु विजयशाखा के ग्रापसी कलह के कारण पिछले सागरों ने अपनी आचार्य परम्परा प्रचलित कर स्वतन्त्र बना ली । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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