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________________ निबन्ध-निचय का मूल मन्त्र बना डाला, मैं समझना हूं कि लेखक इस प्रकार के कार्य में अपना समय लगाने के बदले किसी उपयोगी कार्य में लगाता तो विशेष लाभ के भागी होते। ७. "सिद्धचक्र" के मण्डल की रचना में जो पंचवर्णधान्य का उल्लेख है, यह भी इस विधान की अर्वाचीनता को ही सिद्ध करता है, धान्यों द्वारा "सिद्ध चक्र" का मण्डल बनाने की पद्धति “सिरि सिरि वालकहा" के सिवाय पूर्वकालीन किसी भी ग्रन्थ में नहीं मिलती, प्रतिष्ठा-कल्पों में भी उपाध्याय सकलचन्द्रजी गणी का “प्रतिष्ठा-कल्प" जो विक्रम की १७ वीं शती की कृति है, प्रतिष्ठा में "सिद्धचक्र" का पूजा-विवान बताया है । इसके अतिरिक्त, किसी प्राचीन प्रतिष्ठा विधि में "सिद्धचक्र" का पूजा-विधान नहीं बताया। उस समय केवल नन्द्यावर्त के अन्तर्गत ही सिद्धचक्र के पदों का पूजन होता था। ८. पूजन विधि में दिये स्तोत्रों में "वज्रपञ्जर-स्तोत्र" निश्चित रूप से श्वेताम्बरीय है और “शान्ति-दण्डक" के अन्त में दिए हुए "शिवमस्तु सर्वजगतः” इत्यादि दो पद्य भी निश्चित रूप से श्वेताम्बर जैन परम्परा के हैं। ६. विधान के प्रारम्भ में "वज्रपञ्जर" करने का जो विधान बताया है, वह निश्चित रूप से आधुनिक श्वेताम्बरीय विधान है। "वज्रपञ्जर' के बाद दिग्-बन्धन का "किरिटी किरिटो' इत्यादि जो मन्त्र दिया है, वह पादलिप्त "प्रतिष्ठा-पद्धति" का है, जो प्रतिष्ठा पद्धति श्वेताम्बरीय प्रतिष्ठा पद्धतियों में सब से प्राचीन पद्धति है। १०. यन्त्रोद्धार के छठवें सातवें बलय की जया, जम्भादि पाठ और रोहिणी-प्रज्ञप्ति आदि सोलह देवियां भी “पादलिप्त-प्रतिष्ठा-पद्धति" के नन्द्यावर्त के दो वलयों की देवियाँ हैं, जो श्वेताम्बरीय पद्धति का प्रतिपादन करती हैं। . (२)-अब "पूजा-विधि" की दिगम्बरीयता सिद्ध करने वाले कुछ प्रमाण दिए जाते हैं- १. प्रथम चतुर्विशतिका के प्रारम्भ में ही दूसरे वलय में वर्गों को “अनाहत" के साथ स्थापन करने की बात लिखी है, तृतीय बलय में आठ "अनाहत' स्थापन की बात है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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