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________________ निबन्ध-निचय : ३०६ और सूरमण्डल अर्थात् सौराष्ट्र-मण्डल का विजयी वीर वराह-धरणी वराह रक्षरण कर रहा था । "कल्याणैः परिवर्धमान विपुल श्रीवर्धमाने पुरे, श्रीपावलियनन्नराजवसतौ पर्याप्तशेषः पुरः । पश्चाद्दोस्तटिका प्रजाग्रजनिता प्राजार्चनावर्चने, शान्तेः शान्तिगृहे जिनस्य रचितो वंशो हरीणामयम् ॥ ५३ ॥ अर्थात् —' उस समय कल्याणों से बढ़ते हुए श्री वर्धमानपुर में "नन्नराज वसति" नामक पार्श्वनाथ जिनालय में हरिवंशपुराण को अधिकांश पूरा किया था और शेष रहा हुआ पुराण का भाग "दोस्तटिका" नामक स्थान में शान्तिदायक शान्तिनाथ के चैत्य में रहकर पूरा किया । आचार्य जिनसेन उक्त ५२ वें पद्य के चतुर्थ चरण में सौराष्ट्र- मण्डल के शासक का नाम " वराह" लिखते हैं । पुराण के सम्पादक वराह के साथ "जय" शब्द जोड़कर उसका नाम "जयवराह" बनाते हैं, जो असंगत है । क्योंकि "जयवराह" नामक सौराष्ट्र का शासक कोई राजा ही नहीं हुआ । जिनसेन ने " वराह" शब्द का प्रयोग "धरणिवराह" के अर्थ में किया है, परन्तु " धरणीवराह" के सत्तासमय के साथ पुराणकार का समय संगत न होने के कारण धरणीवराह को छोड़कर "जयवराह" को उसका उत्तराधिकारी होने की कल्पना करते हैं, जो निराधार है । "वराह" यह कोई जातीय नाम नहीं, किन्तु " धरणीवराह" का ही संक्षिप्त नाम "वराह" है । जिनसेन के उपर्युक्त पद्य में सूचित " इन्द्रायुध' राजा का समय विक्रम संवत् ८४०, वत्सराज पुत्र द्वितीय नागभट का राज्य विक्रम संवत् ८५७८६३ तक विद्वान् मानते हैं । श्रीवल्लभ का समय विक्रम संवत् ८२७ के लगभग अनुमान करते हैं, तब " धरणीवराह" जो चापवंशीय राजा था उसका सत्ता- समय शक संवत् ८३६ में माना गया है जो विक्रम संवत् १७१ के बराबर होता है । इस प्रकार हरिवंशपुराणकार प्राचार्य जिनसेन का निर्दिष्ट समय इतिहाससंगत नहीं होता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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