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________________ निबन्ध-निचय : ३०३ पाण्डवों को प्रतिबोध देकर अपने श्रमरण शिष्य बनाए । आचार्य जिनसेन कर्णाटक की तरफ से पश्चिम भारत में प्राये थे, परन्तु उनके हृदय में दक्षिण भारत के लिये मुख्य स्थान था । इसीलिये इन्होंने दक्षिणापथ की तरफ तीर्थङ्कर को विहार करा कर उस भूमि को पवित्र करवाया; परन्तु उस प्रदेश को पल्लव लिखकर आपने अपने भौगोलिक और ऐतिहासिक ज्ञान की कमजोरी प्रदर्शित की है । क्योंकि दक्षिण मथुरा के प्रास-पास का प्रदेश नेमिनाथ के समय पल्लव नाम से प्रसिद्ध होने का कोई प्रमाण नहीं है । दक्षिण प्रदेश में पल्लवों की चर्चा विक्रम की चतुर्थ शती के प्रारम्भ में शुरु होने और आठवीं शती तक उनका उस प्रदेश में राज्य व्यवस्थित रूप से चलने की इतिहास चर्चा करता है । इस परिस्थिति में नेमिनाथ के समय में मदुरा तथा काञ्जिवरं के आस-पास के प्रदेश की " पल्लव” नाम से प्रसिद्धि नहीं हुई थी और न उस प्रदेश में तब तक सभ्यता का ही प्रचार हुआ था । पाण्डवों के पाण्ड्यमथुरा में भगवान् नेमिनाथ के श्रमरणों में से एक स्थविर उस प्रदेश में विहार करके गए थे और उन्हीं के उपदेश से पाण्डवों ने श्रमरणधर्म की प्रव्रज्या ली थी और बाद में वे सब सौराष्ट्र की तरफ विहार कर गये थे। जब वे आधुनिक सौराष्ट्र स्थित "शत्रुञ्जय" पर्वत के आस- पास पहुँचे तो उन्होंने सुना कि ! " उज्जयन्त" पर्वत पर भगवान् नेमिनाथ का निर्वारण हो चुका है । इस पर से पाण्डवों ने भी शत्रुञ्जय पर जाकर अनशन कर लिया और निर्वाण प्राप्त हुए । श्वेताम्बर साहित्य में नेमिनाथ के विहार और पाण्डवों के प्रतिबोध का वृतान्त उपर्युक्त मिलता है । (४) आचार्य जिनसेन यापनीय: । आचार्य जिनसेन मूल में यापनीय संघीय थे ऐसा हरिवंश के अनेक पाठों से ध्वनित होता है । इन्होंने पुराण की प्रशस्ति के अन्तिम पद्य में अपनी स्थिति को स्पष्ट कर दिया है । वे कहते हैं "व्युत्सृष्टाऽपरसंघ सन्ततिबृहत्पुन्नाटसंघान्वये, व्याप्तः श्री जिनसेनसूरिकविना लाभाय बोधेः पुनः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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