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________________ निबन्ध-निचय । २३६ है, जो जैन संघ में कभी व्यवहार में नहीं पाए। शेष अध्यायों में से कुछ प्रोपदेशिक गाथाओं से भरे हुए हैं, तब अधिकांश कथा दृष्टान्तों से भरे हुए हैं, जिनमें कि कई बातें प्रचलित आगमों से विरुद्ध पड़ती हैं । उपर्युक्त सूत्रों में से प्रथम के तीन सूत्रों में केवल साधु-साध्वी के आचार मार्ग में होने वाले अपराधों का प्राश्चित निरूपण है। लेखकों की चतुर्विध संघात्मक शासन-संस्था का बंधारण नहीं । महानिशीथ में भी अधिकांश श्रमण-श्रमरिणयों के योग्य उपदेश और दृष्टान्त हैं, श्रावक श्राविकात्मक संघ की कोई चर्चा नहीं । जिस संघ के बंधारण की रूपरेखा घड़ने में सहायक होने की बात लिखी गई है। उन ग्रन्थों में वास्तविक क्या हकीकत है, इसका संक्षिप्त दिग्दर्शन ऊपर कराया है, लेखक इस पर विचार करेंगे तो उक्त ग्रन्थों के नाम बताने में उनकी भूल हुई है, यह बात वे स्वयं समझ सकेंगे । (४) संचालकों की कथाएँ : - उपर्युक्त शीर्षक नीचे लेखकों ने शासन संचालन के अधिकारियों की नामावली देते हुए कहा है कि "शासन संचालकों में सर्वोच्च अधिकारी तीर्थङ्कर, उनके बाद गणधर, फिर प्राचार्य, गौणाचार्य, फिर गणि गणावच्छेदक, वृषभ, गीतार्थ मुनि, पंन्यास आदि पदस्थों को क्रमशः शासन संचालन के अधिकार दिए गए हैं।" लेखकों के उपर्युक्त विवरण में भी अनेक आपत्तिजनक बातें हैं । तीर्थङ्करों को शासन संचालन के सर्वोच्च अधिकारी कह ना भ्रान्तिपूर्ण है । तीर्थङ्कर संचालक नहीं, किन्तु तीर्थ के प्रवर्तक होते हैं । वे अपने प्रधान शिष्यों को प्रवचन का बीज "उपन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा" यह त्रिपदी सुनाते हैं और शिष्य इससे शब्द विस्तार द्वारा द्वादशाङ्गी की रचना करते हैं और अपने परम गुरु तीर्थङ्कर भगवन्त की आज्ञा पाकर इस प्रवचन अथवा द्वादशाङ्गी रूप तीर्थ का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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