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________________ २३६ : निबन्ध - मिचय इस स्थिति में "चौबीस तीर्थङ्करों के यक्ष, यक्षिणियों को जिम-शासन का अधिष्ठायक देव मानना अथवा कहना शास्त्र - विरुद्ध है ।" (२) "शासन की संपत्ति के संचालन के अधिकारी" : शासन की सम्पत्ति के अधिकारियों का निरूपण करते हुए लेखक कहते हैं - " शासन की मिलकत का रक्षण करने का अधिकार चतुर्विध संघ को है । परन्तु यह लिखना भी जैन निर्ग्रन्थ श्रमण संघ की शासन व्यवस्थापद्धति सम्बन्धी लेखकों की अनभिज्ञता का सूचक है, क्योंकि “भ्रमणसंघ की शासन व्यवस्था अपने प्राचारों, विचारों, पठनों, पाठनों, परस्पर के सम्बन्धों को ठीक रखने और विशेष संयोगों में संघस्थविर द्वारा संघ समवसरण बुलाकर झगड़ों बखेड़ों का निपटारा करने तक ही सीमित थी ।" जंगम, स्थावर मिलकतों पर न श्रमणों का दखल था, न अविकार । इन बातों में श्रमरणगण उपदेशक रूप में गृहस्थों को मार्ग-दर्शन करा सकते थे 1 जंगम-स्थावर मिलकतों का रक्षण और व्यवस्था करना, जैन गृहस्थों तथा उपासकों का काम था, न कि जैन श्रमण श्रमणियों का । जब से श्रमण वनवास को छोड़कर अधिकांश में ग्रामवासी हुए, उसके बाद धीरेधीरे चैत्यवास और चैत्यों की व्यवस्था में उनका सम्पर्क बढ़ता गया । परिणाम यह हुआ कि श्रमरणसंघ की मौलिक विशुद्ध शासन व्यवस्था निर्बल होती गई और चैत्यवासी साधुनों के प्राबल्य से उनके बहुमत से शासन-पद्धति ने नया रूप धारण किया जो किसी अंश में आज तक चला श्रा रहा है । परन्तु ऐसी शिथिलाचारियों के बहुमत से दृढ़मूल बनी हुई अनामिक शासन व्यवस्था को जैन संघ के बंधारण में स्थान देना शास्त्रीय दृष्टि से उचित नहीं है । आगे लेखक कहते हैं— " संघ के शाश्वत वाले और संघ का अनुशासन नहीं मानने वाले पान की तरह संघ से दूर कर देना चाहिए। सम्पूर्णतया सहमत हैं, परन्तु लेखक महोदय जैन संघ का इतिहास जान लेते तो उपर्युक्त कथन करने का साहस ही अधिकारों को क्षति पहुँचाने जैन नामधारियों को सड़े लेखकों के इस कथन से हम यदि पिछले २१०० वर्षों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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