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________________ निबन्ध-निचय : २०७ वेष-भूषा ::: यों तो प्रतिष्ठाचार्य की वेष-भूषा, यदि वह संयमी होगा तो साधु के वेष में ही होगा, परन्तु प्रतिष्ठा के दिन इनकी वेष-भूषा में थोड़ा सा परिवर्तन होता है। निर्वाणकलिका में इसके सम्बन्ध में नीचे लिखे अनुसार विधान किया है "वासुकिनिर्मोकलघुनी, प्रत्यग्रवाससी दधानः करांगुलीविन्यस्तकाञ्चनमुद्रिकः, प्रकोष्ठदेशनियोजितकनककङ्कणः, तपसा विशुद्धदेहो वेदिकायामुदङ्मुखमुपविश्य ।” (नि० क० १२-१) अर्थात्- 'बहुत महीन्, श्वेत और कीमती नये दो वस्त्रधारक, हाथ की अंगुली में सुवर्ण-मुद्रिका (वींटी) और मणिबन्ध में सुवर्ण का कंकण धारण किये हुए उपवास से विशुद्ध शरीर वाला प्रतिष्ठाचार्य वेदिका पर उत्तराभिमुख बैठकर ।' श्री पादलिप्तसूरिजी के उक्त शब्दों का अनुसरण करते हुए प्राचार्य श्री श्रीचन्द्रसूरि, श्री जिनप्रभसूरि, श्री वर्धमानसूरिजी ने भी अपनी-अपनी प्रतिष्ठा-पद्धतियों में “ततः सूरि: कङ्कणमुद्रिकाहस्त: सदशवस्त्रपरिधानः" इन शब्दों में प्रतिष्ठाचार्य की वेष-भूषा का सूचन किया है । जैन साधु के प्राचार से परिचित कोई भी मनुष्य यहां पूछ सकता है कि जैन प्राचार्य जो निम्रन्थ साधुओं में मुख्य माने जाते हैं उनके लिए सुवर्ण-मुद्रिका और सुवर्ण-कंकरण का धारण करना कहां तक उचित गिना जा सकता है ? स्वच्छ नवीन वस्त्र तो टीक पर सुवर्णमुद्रा, कंकरण धारण तो प्रतिष्ठाचार्य के लिए अनुचित ही दीखता है। क्या सुवर्ण-मुद्राकंकण पहिने विना अंजनशलाका हो ही नहीं सकती ? उपर्यक्त प्रश्न का उत्तर यह है-प्रतिष्ठाचार्य के लिए मुद्रा कंकण धारण करना अनिवार्य नहीं है । श्री पादलिप्तसूरिजी ने जिन मूल गाथानों को अपनी प्रतिष्ठा-पद्धति का मूलाधार माना है और अनेक स्थानों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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