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________________ निबन्ध-निचय माया' ये शब्द बोलती और व्यन्तरी के मुख में बलिक्षेप करती। इस घटना और उस पर बोले गये शब्दों पर से किसी ने "अहं गोवालयमाया, सिवादेवी, तुम्ह नयरनिवासिनी । प्रम्ह सिवं तुम्ह सिवं, असिवोवसमं, सिवं भवतु स्वाहा ॥" यह गाथा जोड़ दी और कालान्तर में वह शान्तिपाठ के अन्त में लिख ली गई। बाद में किसी संशोधक ने उल्लिखित "शिवा" को चण्डप्रद्योत की पट्टरानी न समझ के नेमिनाथ की माता मानकर 'गोवालय' के स्थान में 'तित्थयर' शब्द जोड़ दिया। श्री गांधी उत्कंठा पूर्वक श्री. हर्षकीर्ति की टीका का पाठ लिखकर कहते हैं कि-"हर्षकीर्ति सरि भी 'तित्थयर' माता लिखते हैं।" श्री गांधी को शायद खबर न होगी कि श्री हर्षकीर्ति सूरि कोई श्रुतधर या गीतार्थ प्राचार्य नहीं थे। किन्तु सत्रहवें सैके के कतिपय यतियों के अग्रेसर प्राचार्य नामधारी यती थे, जो परिग्रहधारी होकर दवा-दारू का व्यवसाय करते थे। इसलिए उन्होंने जो कुछ लिखा वह प्रमाण है, यह मान लेने की आवश्यकता नहीं है। हर्षकीति के उक्त कथन से इतना ही प्रमाणित हो सकता है कि "तित्थयरमाया" यह भूल हर्षकीर्ति के समय के पहिले की है । नं० ४५-४६ ये दोनों भूलें “संतिकर स्तव" की हैं जो अन्य किसी प्रकार से पाठ-साम्य से किसी ने इसमें यह पाठ ले लिया है। मालूम होता है श्री गांधी भी श्री सोमतिलक सूरि के "सप्ततिशत स्थानक" प्रकरण में "मणुअसर कुमारो' तथा “वइरुट्टदत्त" यह पाठ होना स्वीकार करते हैं, तब इसके विरोध में इतना ऊहापोह करने की क्या आवश्यकता थी और "१४६७ में लिखी हुई प्राचीन पोथो के अनुसार छपा हुआ पाठ है ऐसा स्मरण है।" यह संदिग्ध वचन लिखने की क्या जरूरत थी? यह हम समझ नहीं सकते, हमने यह पाठ लगभग पन्द्रहवें सैंकड़े के अन्त में या तो सोलहवें सैके की आदि में लिखे हुए एक जीर्ण पत्र के आधार पर सुधारा है। गांधी को यदि चौदह सौ सत्तानवें में लिखी हुई पोथी में यह छपा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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