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________________ निबन्ध-निचय : ११९ संकलनकर्ता ने जो गहित प्रवृत्ति की है, इससे उनको कोई लाभ हुअा होगा, यह तो हम नहीं कह सकते। परन्तु इस प्रकार गुम नाम से ग्रन्थकार बनकर अमुक गच्छ वालों की आँखों में धूल झोंकने का प्रपञ्च करके अन्य निर्दोष कृतियों में भी इसी प्रकार का कोई प्रपञ्च तो नहीं है ? इस प्रकार पाठकों को शंकाशील बनाने का मार्ग चालू किया है जो जैन संघ मात्र के लिए घातक है। इस प्रकार पर्दे में रहकर दूसरे गच्छीय बनकर अपने गच्छ की उन्नति देखने वाले केवल स्वप्नदर्शी हैं। ऐसे झूठे प्रपञ्चों से न कोई गच्छ उन्नत होगा, न जीवित ही रहेगा। अन्त में जिनप्रतिमाधिकार २ के लेखक ने अपना समय इरादापूर्वक गुप्त रखा है। इतना ही नहीं, बल्कि एक दो स्थानों पर तो उसने पाठकों को भुलावे में डालने का प्रयत्न भी किया है। वगैर प्रसंग के ग्रन्थ के बीच में अंचलगच्छ की पट्टावली देकर प्राचार्य जयकेसरी तक पूग करना, तथा एक स्थान पर संवत् १५८० का वर्ष लिखना इसका तात्पर्य यही है कि लेखक इस ग्रन्थ को विक्रम की सोलहवीं शती की कृति मनवाना चाहते हैं, परन्तु उनकी यह मुराद पूरी नहीं होने पाई। कई स्थानों में प्रयुक्त अर्वाचीन भाषा के शब्दप्रयोग तथा शास्त्रज्ञान की कमी बताने वाली भूलें उनको विक्रम की सोलहवीं शती के पूर्व का प्रमाणित नहीं होने देतीं। दृष्टान्त के रूप में एक स्थान पर जिन-जन्म के अधिकार में "द्रो" शब्द का प्रयोग लेखक का अर्वाचीनत्व बताता है। इसी तरह श्रमण की द्वादश प्रतिमानों का शीर्षक लिखते समय “समणाणं समणीणं बारस पडिमा पन्नत्ता" इस प्रकार सूत्रीय शीर्षक लिखा है। परन्तु लेखक को इतना भी मालूम हो नहीं सका कि जैन-भिक्षु की द्वादश प्रतिमा केवल जैन श्रमणों के लिए ही होती हैं, जैन श्रमणियों के लिए नहीं। फिर भी लेखक ने श्रमण और श्रमणियों की बारह प्रतिमाएं बताई हैं। यह उसका अज्ञान तो है ही, साथ ही "बारस पडिमा पन्नत्ता" इन शब्दों से इस शीर्षक को किसी आगम का सूत्र मनाने की होशियारी को है, परन्तु श्रमण के साथ श्रमणी शब्द को जोड़कर लेखक ने अपनी होशियारी को गुड़ गोबर बना दिया है। इसी प्रकार संख्या-बद्ध प्राकृत पाठों को सूत्रों के ढंग से इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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