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________________ त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा । थोत्तपणिवायदंडगपणिहाणतिगेण संजुआ एसा )। संपुण्णा विन्नेया जेट्ठा उक्कोसिआ नाम (९)॥" (शान्तिमूरीय चैत्यवन्दनमहाभाष्य) अर्थ-मात्र एक नमस्कार करने से । जघन्यजघन्या । चैत्यवंदना होती है। १ । एक से ज्यादा यथाशक्ति नमस्कार करना इसे 'जघन्यमध्यमा' चैत्यवन्दना कहते हैं । २ । वही शक्रस्तवपर्यन्त करने से यानी यथाशक्ति नमस्कारों के ऊपर शक्रस्तव कहने से 'जघन्योत्कृष्टा' नाम की तीसरी चैत्यवन्दना होती है । ३। वही-उपर्युक्त चैत्यवन्दना ईर्यावहिया के साथ शक्रस्तवदंडक के करने से 'मध्यमजघन्या' नाम की चौथी चैत्यवन्दना होती है । ४। यही चैत्यदंडक और एक स्तुति के साथ करने से ' सर्वमध्यमा' यानी नव भेदों के मध्यमें रहने वाली ' मध्यममध्यमा' नामा पांचवीं चैत्यवंदना कही जाती है । ५। ___ उसी पांचवीं एक स्तुति वाली चैत्यवंदना में त्रिश्लोकात्मक तीन थुईयां और संयुक्त कर देने से वह चार थुई की ' मध्यमोत्कृष्टा' नाम की छठी चैत्यवंदना होती है । ६।। . इसी छठी चैत्यवंदना में शक्रस्तवादि अधिक जोड देने से 'उत्कृष्टजघन्या' सातवीं चैत्यवंदना होती है । ७ । 'थुइजुअलजुअल' इसका अर्थ है ' आठ थुई ' क्यों कि" स्तुतियुगलं च समयभाषया स्तुतिचतुष्कमुच्यते " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003120
Book TitleTristutik Mat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherLakshmichandra Amichandra Porwal Gudabalotara
Publication Year1917
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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