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________________ त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा । सिर्फ पिष्टपेषण किया है, क्यों कि यही बात इन्हों ने पहले भी लिख दी थी, इस लिये इस का उत्तर भी पहले ही देदिया गया है, लेखकों की तरह यहां फिर पिष्टपेषण करना मुझे रुचिकर नहीं। लेखक वार बार यह पुकारते हैं कि 'चतुर्थ स्तुति किसी भी जैनशास्त्र में नहीं कही' इस लिए चतुर्थस्तुति को सिद्ध करने वाले कुछ शास्त्रों के प्रमाण भी यहां लिख देता हूं। (१) "वैयावृत्त्यकराणां प्रवचनार्थं व्यापृतभावानां यक्षाम्रकूष्माण्ड्यादीनां, शान्तिकराणां क्षुद्रोपद्रवेषु, सम्यग्दृष्टीनां सामान्येनाऽन्येषां समाधिकराणां, स्व-परयोस्तेषामेव, स्वरूपमेतदेवैषामिति वृद्धसंप्रदायः, एतेषां संबन्धिनं-सप्तम्यर्थे षष्ठी-एतद्विषयम् एतानाश्रित्य करोमि कायोत्सर्गम् । कायोत्सर्गविस्तरः पूर्ववत् । स्तुतिश्च नवरमेषां वैयावृत्त्यकराणां, तथा तद्भाववृद्धरित्युक्तप्रायम् ॥ ( हारिभद्रीय ललितविस्तरा वृत्ति ) (२) " पञ्चभिर्दण्डकैः, स्तुतिचतुष्केण, शक्रस्तवपञ्चकेन, प्रणिधानेन ___चोत्कृष्टा चैत्यवन्दनेति " (श्रीदेवमूरीय यतिदिनचर्या) (३) “ तथा पञ्चदण्डकैः -शक्रस्तव, (१) चैत्यस्तव (२) नामस्तव (३) श्रुतस्तव (४) सिद्धस्तवाख्यैः, (५) स्तुतिचतुष्टयेन, स्तवनेन, जय वीयरायेत्यादि प्रणिधानेन च उत्कृष्टा । " (मानविजयोपाध्यायकृत धर्मसंग्रह ) (४) तहा सक्कत्थयाइदंडगपंचग-थुईचउक्क–पणिहाणकरणतो संपुण्णा, एसा उक्कोसा ।" ( वन्दनकचूर्णि) (५) “ एवं च शक्रस्तवपञ्चकं भवति, उत्कृष्टचैत्यवन्दनया वन्दितुकामः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003120
Book TitleTristutik Mat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherLakshmichandra Amichandra Porwal Gudabalotara
Publication Year1917
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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