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________________ ( ३३० ) विसमा जइ होज्ज तणा उवरि मझव हेट्टो वावि । मरणं गेलण्णं वा तिण्हंपि उ निदिसे तत्थ ॥४६॥ उवरिं आयरियाणं मझे वसहाण हेट्टि भिक्खूणं । तिएहपि रक्खणहा सब्बत्थ समो उ कायब्बो ॥५०॥ अर्थ-मृतक विसर्जन के लिये गीतार्थ श्रमण जो कुश तृण वहां लेकर आया है, उन कुशों से प्रमार्जित स्थण्डिल भूमि पर अविछिच्न कुश धारा से संस्तारक करे, कुश तृण समच्छेद होने चाहिए, ताकि ऊपर से नीचे तक संस्तारक समान बन जाय किसी भी भाग में संस्तार में विषमता न आनी चाहिए । अगर कुश तृण उपरि भाग में, मध्य भाग में, अथवा निम्न भाग में विषम होंगे तो क्रमशः तीन का मरण, अथवा मान्द्य होगा, ऐसा कहना चाहिए । ___ उपरिम भाग तृणों की विषमता से प्राचार्य का, मध्य भाग की विषमता से वृषभ ( गच्छ की व्यवस्था करने वाला वयोवृद्ध समर्थ साधु ) का और संस्तारक के निम्नभाग की विषमता से सामान्य श्रमणों का मरण होता है, इस वास्ते तीनों की रक्षा के लिये दर्भ-संस्तारक सर्वत्र समान करना चाहिए । जत्थ नथि तणाई चुण्णेहिं तत्थ केसरहिं वा । कायब्बोत्थ ककारो हेट तकारं च बंधेज्जा ॥ ४१ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003119
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1961
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Food
File Size19 MB
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