SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 270
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२६ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण सुरक्षित रखा गया है-'प्रज्ञापर्व' पुस्तक में । इसमें अनेक सामयिक विषयों पर सुन्दर प्रकाश डाला गया है। ___ इन निबन्धों का संकलन मुनिश्री सुखलालजी ने तैयार किया है। पुस्तक के परिशिष्ट में इस वर्ष के सम्पूर्ण इतिहास को भी सुरक्षित कर दिया है। लगभग १५ शीर्षकों में 'योगक्षेमवर्ष' के पूरे इतिहास का लेखा-जोखा इसमें प्रस्तुत है। यह पुस्तक आचार्यवर के नाम से प्रकाशित है अतः यह परिशिष्ट कुछ अलग-थलग सा लगता है। ४५ लघु निबन्धों से युक्त यह पुस्तक अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है । प्रत्येक लेख आधुनिक संदर्भ में जीवन की समस्याओं से जूझता-सा प्रतीत होता है। यह पुस्तक निःसंदेह दीर्घकाल तक लोगों को प्रज्ञापर्व की स्मृति दिलाती रहेगी तथा अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय की सार्थक प्रतीति कराती रहेगी। प्रज्ञापुरुष जयाचार्य तेरापंथ की तेजस्वी आचार्य-परम्परा में जयाचार्य चतुर्थ आचार्य थे। उन्होंने अपने नेतृत्वकाल में अनुशासन और मर्यादा के विविध प्रयोग किए । राजस्थानी भाषा में इतने विशाल साहित्य का निर्माण उनकी अनूठी प्रत्युत्पन्न मेधा का परिचायक है । जयाचार्य का जीवन बहुमुखी प्रवृत्तियों का केन्द्र था। उनके विशाल व्यक्तित्व को शब्दों की परिधि में बांधना असंभव नहीं, तो दुःसंभव अवश्य है। पर आचार्य श्री की उदग्र आकांक्षा ने उनकी जीवन-यात्रा को प्रस्तुत करने का निर्णय लिया और वह 'प्रज्ञापुरुष जयाचार्य' के रूप में रूपायित हो गई ।। लगभग ४४ अध्यायों में विभक्त यह जीवनी-ग्रंथ जयाचार्य के समग्र व्यक्तित्व की संक्षिप्त प्रस्तुति देने वाला है। जयाचार्य ने अपने धर्मसंघ को संविभाग और अनुशासन का उदाहरण कैसे बनाया, इसके विविध प्रयोग भी इसमें दिए गए हैं । इस ग्रंथ में उनकी योग-साधना, साहित्य-साधना और संघ-साधना की त्रिवेणी बही है। यह त्रिवेणी निश्चय ही पाठकों की मानसिक शुद्धि में उपयोगी बनेगी। यह पुस्तक आचार्य तुलसी और युवाचार्य महाप्रज्ञ की संयुक्त कृति है। संपादन-कला में कुशलहस्त मुनि दुलहराजजी इसके संपादक हैं। यह कृति जयाचार्य निर्वाण शताब्दी के उपलक्ष्य में लिखी गयी है। जयाचार्य के योगदान की झलक को प्रस्तुत करने वाली यह कृति जीवनी साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखती है तथा जयाचार्य के व्यक्तित्व एवं कर्तत्व को समझने में अहंभूमिका निभाती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy