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________________ २२४ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण से हुआ है, अतः आचार्यप्रवर के बहुमूल्य विचारों के साथ-साथ ऐतिहासिक दृष्टि से भी इस पुस्तक का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है। सम्पूर्ण पुस्तक तीन प्रकरणों में विभाजित है। प्रथम प्रकरण 'आयोजन' में अनेक महत्त्वपूर्ण विद्वद् गोष्ठियों की रिपोर्ताज है एवं आचार्य श्री के मौलिक विचारों का संकलन है। दूसरा प्रकरण 'प्रवचन' नाम से प्रकाशित है । इसमें लगभग उन्नीस विषयों पर आचार्यश्री के प्रेरक विचारों एवं उद्बोधनों का संकलन है । तथा तीसरे प्रकरण 'मंथन' में पंडित नेहरू, दलाईलामा जैसे ३४ अंतर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय व्यक्तियों के साथ हुए वार्तालापों की संक्षिप्त प्रस्तुति हुई है। परिशिष्ट में आचार्यश्री से सम्बन्धित अनेक प्रेरक संस्मरणों का समावेश है। ३५ साल पूर्व मुद्रित होने पर भी यह पुस्तक साहित्यिक दृष्टि से अपना विशेष महत्त्व रखती है । नैतिकता के नए चरण यह ‘अणुव्रत विचार माला' का चौथा पुष्प है । इसमें ७ लघु प्रवचनों का संकलन है । इन प्रवचनों/लेखों में अणुव्रत के विविध पक्षों का नैतिक संदर्भ में चिंतन किया गया है। आचार्य तुलसी ने अणुव्रत के माध्यम से नैतिक क्रांति की अलख जगाई है। उनकी उदग्र उत्कंठा है कि धर्म और नैतिकता का गठबंधन हो। यदि धार्मिक होकर व्यक्ति नैतिक नहीं है तो वह भलावामात्र है। अपनी इसी उत्कंठा को वे इस पुस्तक में इन शब्दों में व्यक्त करते हैं --- "नैतिक पुनर्निर्माण की परिकल्पना मुझे बहुत प्रिय है। उसकी क्रियान्विति को मैं अपने ही लक्ष्य की क्रियान्विति मानता हूं।" __ अंतिम भयमुक्ति' प्रवचन में भय से मुक्त होने के ९ उपाय निर्दिष्ट हैं । वे उपाय आध्यात्मिक होने के साथ-साथ मनोवैज्ञानिक भी हैं। लघुकाय होते हुए भी यह पुस्तिका अणुव्रत और नैतिकता की संक्षिप्त झांकी प्रस्तुत करने में समर्थ है। नैतिक-संजीवन भाग-१ मूच्छित मानव के लिए संजीवनी प्राणदायिनी होती है, वैसे ही मूच्छित मानवता नैतिक-संजीवन से ही पुनरुज्जीवित हो सकती है । आचार्य तुलसी ने अणुव्रत के माध्यम से मानवता के पुनरुद्धार का बीड़ा उठाया है । 'नैतिक संजीवन' पुस्तक इसी की फलश्रुति है। आचार्य तुलसी अपने आत्मकथ्य में इस पुस्तक की प्रस्तुति इन शब्दों में प्रकट करते हैं ----नैतिक ऊर्ध्व संचार के लिए जो एक संयमप्रधान आचार संहिता प्रस्तुत की गई, उसे लोगों ने 'अणुव्रत आंदोलन' कहा और उसी उद्देश्य से जो प्रेरक विचार मैं देता रहा, वह 'नैतिक संजीवन' बन गया।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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