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________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १९५ अध्यात्म । जहां धर्म विकसित होता है, वहां जीवन का निर्माण होता है और समाज स्वस्थ रहता है। उनकी दृष्टि में वह समाज रुग्ण है, जहां संग्रह, शोषण, चोरी एवं छीनाझपटी चलती है। अतः जहां सब अपने अधिकारों में सन्तुष्ट तथा सहयोग और सामंजस्य की भावना लिए चलते हों, वही स्वस्थ एवं आदर्श समाज हो सकता है। अणुव्रत द्वारा वे एक ऐसे समाज का स्वप्न देखते हैं, जहां हिंसा व संग्रह न हो । न कानून हो और न दण्ड देने वाला कोई सत्ताधीश हो । न कोई अमीर हो न गरीब । एक का जातिगत अहं और दूसरे की हीनता समाज में वैषम्य पैदा करती है । अतः अणुव्रत प्रेरित समाज समान धरातल पर विकसित होगा। इसके लिए वे अनुशासन और संयम की शक्ति को अनिवार्य मानते हैं। ___अणुव्रत के द्वारा शोषण-विहीन स्वस्थ समाज-रचना के कुछ करणीय बिन्दु प्रस्तुत करते हुए वे कहते हैं -- “१. वह समाज अल्पेच्छा और अपरिग्रह को पहला स्थान देगा । अल्पेच्छा से तात्पर्य है कि उसकी आकांक्षाएं निरंकुश नहीं होंगी। आकांक्षाओं का विस्तार संग्रह या परिग्रह का कारण बनता है और संग्रह शोषण का कारण बनता है । .......इच्छा-संयम के साथ संग्रह-संयम स्वयं हो जाएगा। २. अणुव्रत अर्थ और सत्ता के केन्द्रीकरण को, फिर चाहे वह व्यक्तिगत स्तर पर हो या राष्ट्रीय स्तर पर, प्रश्रय नहीं देगा। अर्थ और सत्ता का केन्द्रीकरण ही शोषण और संग्रह की समस्याओं को जन्म देता ३. उस समाज में श्रम और स्वावलम्बन की प्रतिष्ठा होगी । व्यक्ति आत्मनिर्भर बने और श्रम का मूल्यांकन सामाजिक स्तर पर हो, यह प्रयत्न किया जाएगा। ४. संग्रह करने वाले को उसमें सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी। मनुष्य बहुधा अधिक संग्रह प्रतिष्ठा पाने के लिए ही करता है । आवश्यकता पूर्ति के लिए मनुष्य को अधिक धन अपेक्षित नहीं होता। फिर भी धन के प्रति उसकी जो लालसा देखी जाती है, उसका एक मात्र कारण प्रतिष्ठा ही है । ....."यही कारण है कि वह सब प्रकार के छल, प्रपंच, फरेब और षड्यन्त्र रचकर भी पैसा कमाना चाहता है। आज यदि अर्थ की भूमिका में से सामाजिक प्रतिष्ठा को निकाल लिया जाए तो दूसरे ही क्षण संग्रह का महल ढह जाएगा। - १. आगे की सुधि लेइ, पृ० २६८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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