SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 221
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १७७ बाद नए-नए खाद्य-पेय की मनुहार - क्या यह सब धार्मिक कहलाने वाले परिवारों में नहीं हो रहा है ? समाज का नेतृत्व करने वाले लोगों में नहीं हो रहा है ? एक ओर करोड़ों लोगों को दो समय का पूरा भोजन मयस्सर नहीं होता, दूसरी ओर भोजन-व्यवस्था में लाखों-करोड़ों की बर्बादी । समझ में नहीं आता, यह सब क्या हो रहा है ?' " शादी की वर्षगांठ को धूमधाम से मनाना आधुनिक युग की फैशन बनती जा रही है । इसकी तीखी आलोचना करते हुए वे समाज का ध्यान आकृष्ट करना चाहते हैं " प्राचीनकाल में एक बार विवाह होता और सदा के लिए छुट्टी हो जाती । पर अब तो विवाह होने के बाद भी बार-बार विवाह का रिहर्सल किया जाता है। विवाह की सिल्वर जुबली, गोल्डन जुबली, षष्टिपूर्ति आदि न जाने कितने अवसर आते हैं, जिन पर होने वाले समारोह प्रीतिभोज आदि देखकर ऐसा लगता है मानो नए सिरे से शादी हो रही है ।' मृतक प्रथा पर होने वाले आडम्बर और अपव्यय पर उनका व्यंग्य कितना मार्मिक एवं वेधक है – “आश्चर्य है कि जीवनकाल में दादा, पिता और माता को पानी पिलाने की फुरसत नहीं और मरने के बाद हलुआ, पूड़ी खिलाना चाहते हैं, यह कैसी विडम्बना और कितना अंधविश्वास है ! 113 इसके अतिरिक्त 'नए मोड़' के माध्यम से उन्होंने विधवा स्त्रियों के प्रति होने वाली उपेक्षा एवं दयनीय व्यवहार को भी बदलने का प्रयत्न किया है । इस संदर्भ में उन्होंने समाज को केवल उपदेश ही नहीं दिया, बल्कि सक्रिय प्रयोगात्मक प्रशिक्षण भी दिया है। हर मंगल कार्य में अपशकुन समझी जाने वाली विधवा स्त्रियों का उन्होंने प्रस्थान की मंगल बेला में अनेक बार शकुन लिया है तथा समाज की भ्रांत धारणा को बदलने का प्रयत्न किया है । विधवा स्त्रियों की दयनीय स्थिति का चित्रण करती हुई उनकी ये पंक्तियां समाज को चिन्तन के लिए नए बिन्दु प्रस्तुत करने वाली हैं - "विधवा को अपने ही घर में नौकरानी की तरह रहना पड़ता है । क्या कोई पुरुष अपनी पत्नी के वियोग में ऐसा जीवन जीता है ? यदि नहीं तो स्त्री ने ऐसा कौन-सा अपराध किया, जो उसे ऐसी हृदय विदारक वेदना भोगनी पड़े । समाज का दायित्व है कि ऐसी वियोगिनी योगिनियों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण वातावरण का निर्माण करे और उन्हें सचेतन जीवन जीने का अवसर दे ।" १. आह्वान, पृ० ११,१२ । २. वही, पृ० १३ । ३. एक बूंद : एक सागर, पृ० ९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org 2
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy