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________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १७१ पंक्तियां कितनी सटीक बनकर श्रीमंतों और महाजनों को अंतर में झांकने को प्रेरित कर रही हैं-"जाति के आधार पर किसी को दीन, हीन और अस्पृश्य मानना, उसको मौलिक अधिकारों से वंचित करना सामाजिक विषमता एवं वर्गसंघर्ष को बढ़ावा देना है। मैं तो मानता हूं जाति से व्यक्ति नीच, भ्रष्ट या घृणास्पद नहीं होता । जिनके आचरण खराब हैं, आदतें बुरी हैं, जो शराबी हैं, जुआरी हैं, वे भ्रष्ट हैं, चाहे वे किसी जाति के हों।" जातिवाद पनपने का एक बहुत बड़ा कारण वे रूढ़ धर्माचार्यों को मानते हैं । समय आने पर सामाजिक वैषम्य फैलाने वाले धर्माचार्यों को ललकारने से भी वे नहीं चूके हैं..."देश में लगभग पन्द्रह करोड़ हरिजन हैं । उनका सम्बन्ध हिन्दू समाज के साथ है। उनकी जो दुर्दशा हो रही है, उसका मुख्य कारण है-धर्मान्धता। ये धर्मान्ध लोग कभी उनके मन्दिर प्रवेश पर रोक लगाते हैं और कभी अन्य बहाना बनाकर अकारण ही उन्हें सताते हैं। क्या ऐसा कर उन्हें धर्म-परिवर्तन की ओर धकेला नहीं जा रहा है ? क्या ऐसा होना समाज के हित में होगा ? कुछ धर्मगुरु भी बेबुनियादी बातों को प्रश्रय देते हैं, जातिवाद का विष घोलते हैं और हिन्दु-समाज को आपस में लड़ाकर अपनी अहंवादी मनोवृत्ति का परिचय देते हैं। उनका यह कथन इस बात का संकेत है कि सभी धर्माचार्य और धर्मनेता चाहें तो वे समाज को टूटन और बिखराव की स्थिति से उबार सकते हैं। धर्मगुरुओं को वे विनम्र आह्वान करते हुए कहते हैं --- “देश के धर्मगुरुओं और धर्मनेताओं को मेरा विनम्र सुझाव है कि वे अपने अनुयायियों को नैतिक मूल्यों की ओर अग्रसर करें। उन्हें हिंसा, छुआछूत एवं साम्प्रदायिकता से बचाएं । पारस्परिक सौहार्द एवं सद्भावना बढ़ाने की प्रेरणा दें तथा इन्सानियत को सुरक्षित रखने का प्रयत्न करें तो अनेक समस्याओं का समाधान हो सकता आचार्य तुलसी ने जातिवाद के विरुद्ध आवाज ही नहीं उठाई, जीवन के अनेक उदाहरणों से समाज को सक्रिय प्रशिक्षण भी दिया है। सन् १९६१ के आसपास की घटना है। आचार्यवर कुछ साधु-साध्वियों को अध्ययन करवा रहे थे । सहसा प्रवचन सभा में बलाई जाति के लोगों को दरी छोड़ देने को कड़े शब्दों में कहा गया, देखते ही देखते उनके पैरों के नीचे से दरी निकाल ली गयी । आचार्यश्री को जब यह ज्ञात हुआ तो तत्काल अध्यापन का कार्य छोड़कर प्रवचनस्थल पर पधारे और कड़े शब्दों में समाज को ललकारते हुए कहा-"जाति से स्वयं को ऊंचा मानने वाले जरा सोचें तो १. क्या धर्म बुद्धिगम्य है ? पृ० १४३ । २. बैसाखियां विश्वास की, पृ० ७९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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