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________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १५९ ही हित की बात सोचता है, तब राष्ट्र की एकता खतरे में पड़ जाती है। उत्तर के लोग उत्तर की चिन्ता करते हैं, दक्षिण के लोग दक्षिण की, लेकिन भारत की चिन्ता कौन करे ? भारत सलामत है तो सब सलामत हैं । भारत ही नहीं रहा तो उत्तर और दक्षिण का क्या होगा ?' आचार्य तुलसी मानते हैं कि प्रांतीय व्यवस्था देश के शासनसूत्र में स्थिरता लाने के लिए थी पर आज चंद स्वार्थों के पीछे एक जटिल पहेली बनकर रह गयी है। जब तक राष्ट्र के लिए स्वतत्त्व को विसर्जित करने की भावना पुष्ट नहीं होगी, राष्ट्रीय एकता का नारा सार्थक नहीं हो सकता ।२ आचार्य तुलसी जब दक्षिण यात्रा पर थे तब दो प्रांतों के वैचारिक वैषम्य में समन्वय करती निम्न उक्ति उनके गंभीर चिंतन की साक्षी है.--- "केरल और तमिलनाडु एक-दूसरे से सटे हुए होने पर भी प्रकृति से भिन्न हैं । एक भक्तिप्रधान है तो दूसरा तर्कप्रधान । तमिलनाडु में तर्क है ही नहीं और केरल में भक्ति है ही नहीं, ऐसा मैं नहीं कहता हूं। मैं दोनों के मध्य हूं. दोनों का समन्वय करना चाहता हूं।" ___ साम्प्रदायिक उन्माद में उन्मत्त व्यक्ति कृत्य-अकृत्य के विवेक को खो देता है । इस संदर्भ में आचार्य तुलसी का सापेक्ष चिन्तन है --"व्यक्ति अपनेअपने मजहब की उपासना में विश्वास करे, इसमें कोई बुराई नहीं, पर जहां एक सम्प्रदाय के लोग दूसरे सम्प्रदाय के प्रति द्वेष और घृणा का प्रचार करते हैं, वहां देश की मिट्टी कलंकित होती है, राष्ट्र शक्तिहीन होता है तथा व्यक्ति का मन अपवित्र बनता है।"४ धर्मगुरु होते हुए भी वे साम्प्रदायिकता से कोसों दूर हैं । वे अनेक बार इस बात की अभिव्यक्ति दे चुके हैं कि मैं जैन शब्द को भी वहीं तक पकड़े रहना चाहता हूं, जहां तक वह सम्पूर्ण मानवहितों से विसंगत नहीं होता।" साम्प्रदायिक उन्माद के बारे में वे स्पष्ट उद्घोषणा करते हैं --- "साम्प्रदायिक उन्माद को बढ़ाने में असामाजिक तत्त्वों का तो हाथ रहता ही है, कहीं-कहीं धर्मगुरु भी इस आग में ईंधन डाल देते हैं ।"५ आचार्य तुलसी कभी-कभी तो साम्प्रदायिकता फैलाने वाले लोगों को यहां तक कह देते हैं-.--"कांच के महल में बैठकर पत्थर फेंकने वाला क्या कभी सुरक्षित रह सकता है ?" १. जैन भारती, २३ मार्च १९६९ । २. वही, १० मार्च १९६३ । ३. त्रिवेन्द्रम्, १५-३-६९ के प्रवचन से उद्धृत । ४. विज्ञप्ति सं० ९८८ ।। ५. एक बूंद : एक सागर, पृ० १५६५ । ६. मनहंसा मोती चुगे, पृ० ८५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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