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________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १५१ स्वयं न कहकर संसद के द्वारा कहलवा रहे हैं। संसद के मुख से उद्गीर्ण उनका वक्तव्य काफी वजनी है ---"संसद जनता को चिल्लाचिल्लाकर कह रही है कि कृपा करके तीन प्रकार के व्यक्तियों को चुनकर संसद में मत भेजिए--पहले वे, जो परदोषदर्शी हैं, जो विपक्ष की अच्छाई में भी बुराई देखने वाले हैं। "...""दूसरे वे, जो कुटिल हैं, मायावी हैं, नेता नहीं, अभिनेता हैं, असली पात्र नहीं, विदूषक की भूमिका निभाने वाले हैं ।"........"सत्ता-प्राप्ति के लिए अकरणीय जैसा उनके लिए कुछ भी नहीं है। जिस जनता के कंधों पर बैठकर केन्द्र तक पहुंचते हैं, उसके साथ भी धोखा कर सकते हैं । जिस दल के घोषणा-पत्र पर चुनाव जीतकर आए हैं, उसकी पीठ में छुरा भोंक सकते हैं।...."तीसरे उन व्यक्तियों को मुझसे दूर रखिए, जो असंयमी हैं, चरित्रहीन हैं, जो सत्ता में आकर राष्ट्र से भी अधिक महत्व अपने परिवार को देते हैं। देश से भी अधिक महत्त्व अपनी जाति और सम्प्रदाय को देते हैं । सत्ता जिनके लिए सेवा का साधन नहीं, विलास का साधन है। ...... भारतीय संसद भारतीय जनता के द्वार पर अपनी मर्मभेदी पुकार लेकर खड़ी है।"१ चुनाव जनतंत्र का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू चुनाव है। यह राष्ट्रीय चरित्र का प्रतिबिम्ब होता है। जनतंत्र में स्वस्थ मूल्यों को बनाए रखने के लिए चुनाव की स्वस्थता अनिवार्य है। आचार्य तुलसी का मानना है-"चुनाव का समय देश के भविष्य निर्धारण का समय है। अभाव और मोह को उत्तेजना देकर लोकमत प्राप्त करना चुनाव की पवित्रता का लोप करना है। जिस देश में वोट बेचे और खरीदे जाते हैं, उस देश का रक्षक कौन होगा ? ये दोनों बातें जनतंत्र की दुश्मन हैं।" चुनाव के समय हर प्रत्याशी का चिन्तन रहना चाहिए कि राष्ट्र को नैतिक दिशा में कैसे आगे बढ़ाया जाए ? उसकी एकता और अखण्डता को कायम रखने का वातावरण कैसे बनाया जाए ? लेकिन आज इसके विपरीत स्थिति देखने को मिलती है। भारतीय संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में कुर्सी के लिए होने वाली होड़ की अभिव्यक्ति वे इन शब्दों में करते हैं- "जहां पद के लिए मनुहारें होती थीं, कहा जाता था- मैं इसके योग्य नहीं हूं, तुम्हीं संभालो, वहां आज कहा जाता है कि पद का हक मेरा है, तुम्हारा नहीं । पद के योग्य मैं हूं, तुम नहीं।" आचार्य तुलसी की दृष्टि में चुनाव में नैतिकता अनिवार्य शर्त है। १. राजपथ की खोज, पृ० १४१-४२ । २. जैन भारती, १८ फरवरी, १९६८ । ३. वही, २२ नव० १९६४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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