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________________ १४२ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण जो लोग अपने लिए दूसरों के अनिष्ट को क्षम्य मानते हैं, वे अनुदार हो सकते हैं पर भारतीय संस्कृति की यह विलक्षणता रही है कि उसने पदार्थ को आवश्यक माना पर उसे आस्था का केन्द्र नहीं माना । शस्त्रशक्ति का सहारा लिया पर उसमें त्राण नहीं देखा । अपने लिए दूसरों का अनिष्ट हो गया पर उसे क्षम्य नहीं माना । यहां जीवन का चरम लक्ष्य विलासिता नहीं, आत्मसाधना रहा; लोभ-लालसा नहीं, त्याग-तितिक्षा रहा।" अपने प्रवचनों के माध्यम से वे भारतीय जनता के सोए आत्मविश्वास एवं अध्यात्मशक्ति को जगाने का उपक्रम करते रहते हैं। इस संदर्भ में अतीत के गौरव को उजागर करने वाली उनकी निम्न उक्ति अत्यन्त प्रेरक एवं मार्मिक है.---."एक समय भारत अध्यात्म-शिक्षा की दृष्टि से विश्व का गुरु कहलाता था। आज वही भारत भौतिक विद्या की तरह आत्मविद्या के क्षेत्र में भी दूसरों का मुंहताज बन रहा है । .."इस सदी में भी भारतीय संतों, मनीषियों और वैज्ञानिकों के मौलिक चिंतन एवं अनुसंधान ने संसार को चमत्कृत किया है । समस्या यह नहीं है कि भारतीय लोगों ने अपनी अन्तर्दष्टि खो दी। समस्या यह है कि उन्होंने अपना आत्मविश्वास खो दिया । ......"आज सबसे बड़ी अपेक्षा यह है कि भारत अपना मूल्यांकन करना सीखे और खोई प्रतिष्ठा को पुनः अजित करे।"२ इसी व्यापक एवं गहन चिन्तन के आधार पर उनका विश्वास है कि सही अर्थ में अगर कोई संसार का प्रतिनिधित्व कर सकता है तो भारत ही कर सकता है क्योंकि भारत की आत्मा में आज भी अहिंसा की प्राणप्रतिष्ठा है । मैं मानता हूं कि यदि भारत आध्यात्मिकता को भुला देगा तो अपनी मौत मर जाएगा।" छत्तीसवें स्वतंत्रता दिवस पर दिए गए राष्ट्र-उद्बोधन में उनके क्रांतिकारी एवं राष्ट्रीय विचारों की झलक देखी जा सकती है, जो सुषुप्त एवं मूच्छित नागरिकों को जगाने में संजीवनी का कार्य करने वाला है---- "एक स्वतंत्र देश के नागरिक इतने निस्तेज, निराश और कुंठित क्यों हो गए, जो अपने विश्वास और आस्थाओं को भी जिंदा नहीं रख पाते !..." ..एक बड़ा कालखंड बीत जाने के बाद भी यह सवाल उसी मुद्रा में उपस्थित है कि एक स्वतंत्र राष्ट्र के नागरिकों के अरमान पूरे क्यों नहीं हुए ? इस अनुत्तरित प्रश्न का समाधान न आंदोलनों में है, न नारेबाजी में है और न अपनी-अपनी डफली पर अपना-अपना राग अलापने में है । इसके लिए तो सामूहिक प्रयास की अपेक्षा है, जो जनता के चिंतन को बदल सके, १. क्या धर्म बुद्धिगम्य है ?, पृ० ५८ २. अणुव्रत, १६ मार्च, १९९१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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