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________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन कटाक्ष करने से नहीं चूके हैं—“कहीं-कहीं तो हमने महावीर को इतने ठाठबाट से सजा हुआ देखा कि उतना एक सम्राट भी नहीं सजता । लाखोंकरोड़ों की संपत्ति भगवान के शरीर पर लाद दी जाती है। महावीर स्वयं अपने इस शरीर को देखकर शायद पहचान भी नहीं सकेंगे, क्या यह मैं ही हूं ? यह संदेह उन्हें व्यथित नहीं तो विस्मित अवश्य कर देगा।" धर्म के क्षेत्र में साधन और साध्य की शुद्धि पर आचार्य तुलसी ने अतिरिक्त बल दिया है। धर्म का गलत उपयोग करने वालों पर उनका व्यंग्य पठनीय है---"तम्बाकू पीने वाला कहता है, चिलम सुलगाने को जरा आग दे दो, बड़ा धर्म होगा। भीख मांगने वाला दुआ देता है, एक पैसा दे दो, बड़ा धर्म होगा। इतना ही नहीं हिंसा और शोषण में लगा व्यक्ति भी अपने कार्यों पर धर्म की छाप लगाना चाहता है । स्वार्थान्ध व्यक्ति ने धर्म का कितना भयानक दुरुपयोग किया । धार्मिक की धर्म और भगवान से ही सब कुछ पाने की मनोवृत्ति उनकी दृष्टि में ठीक नहीं है। इससे धर्म तो बदनाम होता ही है, साथ ही साथ अकर्मण्यता आदि अनेक विकृतियां भी पनपती हैं। असत्य और अन्याय की रक्षा के लिए भगवान की स्मृति करने वालों की तीखी आलोचना करते हुए वे कहते हैं --"जब व्यक्ति न्यायालय में जाता है, तब भगवान से आशीर्वाद मांगकर जाता है और जब जीत जाता है, तब भगवान की मनौती करता है। भगवान यदि झूठों की विजय करता है तो वह भगवान कैसे होगा ? झूठ चलाने के लिए जो भगवान की शरण लेता है, वह भक्त कैसे होगा ? धार्मिक कैसे होगा ? धर्म में विकृति आने का एक कारण उनके अनुसार यह है कि धर्म के अनुकूल अपने को न बनाकर धर्म को लोगों ने अपने अनुकूल बना लिया, इससे धर्म की आत्मा मृतप्रायः हो गयी है। धर्म के क्षेत्र में विकृति के प्रवेश का एक दूसरा कारण उनकी दृष्टि में यह है कि व्यक्ति का उद्देश्य सम्यक नहीं है। धर्म का मूल उद्देश्य चित्त की निर्मलता और आत्म शुद्धि है पर लोगों ने उसे बाह्य वैभव प्राप्त करने के साथ जोड़ दिया है । गौण को मुख्य बनाने से यह विसंगति पैदा हुई है। इस बात की प्रस्तुति वे बहुत सटीक शब्दों में करते हैं- "धर्म की शरण पवित्र और शुद्ध बनने के लिए नहीं ली जाती, बुराई का फल यहां भी न मिले, अगले जन्म में कभी और कहीं भी न मिले, इसलिए ली जाती है। १. बहता पानी निरमला, पृ० ८२। २. जैन भारती, ६ अप्रैल, १९५८ । ३. अनैतिकता की धूप : अणुव्रत की छतरी, पृ० २४० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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