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________________ ११२ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण को भी भलाई से बदलना है । जो अड़ता है, उनसे हमें टल जाना है । दूसरा जलता है तो हमें जल बन जाना है।' यद्यपि आए हुए उभार को रोकना समूद्र के ज्वार को रोकना है पर आचार्यश्री के इस ओजस्वी वक्तव्य ने न केवल श्रद्धालु लोगों को शान्त कर दिया, वरन् विरोधियों को भी सोच की एक नयी दृष्टि प्रदान की। __ आचार्यश्री के जीवन में जब-जब विरोध के क्षण आए, वे इसी बात को बार-बार दोहराते रहे-"विरोधी लोग क्या करते हैं इस ओर ध्यान न देकर, हमें क्या करना चाहिए, यही अधिक ध्यान देने की बात है। हमें विरोध का शमन विरोध और हिंसा से नहीं, अपितु शान्ति और अहिंसा से करना है। अपना अनुभव डायरी में लिखते हुए वे कहते हैं- “अहिंसा का जोश आज मेरे हृदय में रह-रहकर उफान पैदा कर रहा है, मेरा सीना इससे तना हुआ है और यही मुझमें अहिंसा को जनशक्ति में केन्द्रित करने की एक अज्ञात प्रेरणा जागृत कर रहा है।" विधायक दृष्टिकोण ____ आचार्य तुलसी का दृष्टिकोण विधायक है। यही कारण है कि वे हर बुराई में अच्छाई खोज लेते हैं। वे मानते हैं-"जहां तक अहिंसा का प्रश्न है, वहां हमारा आचरण और व्यवहार अलौकिक होना चाहिए-इस सिद्धांत में मेरी गहरी आस्था है।'' आचार्य तुलसी के जीवन की सैकड़ों घटनाएं इस आस्था की परिक्रमा कर रही हैं। जोधपुर (सन् १९५४) में अणुव्रत का अधिवेशन था । साम्प्रदायिक लोगों ने विरोध में अनेक पर्चे निकाले । दीवारें ही नहीं, सड़कों को भी पोस्टरों से पाट दिया। मध्याह्न में आचार्यवर पादविहार कर अधिवेशन स्थल पर पहुंचे। वहां अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा..... साम्प्रदायिक लोग कभी-कभी अनजाने में हित कर देते हैं। यदि आज सड़कों पर ये पोस्टर बिछे नहीं होते तो पैर कितने जलते ? दुपहरी के समय में डामर की सड़कों पर नंगे पैर चलना कितना कठिन होता ? इन पोस्टरों ने हमारी कठिनाई कम कर दी इस अवसर पर आचार्यश्री ने यह घोष दिया "जो हमारा हो विरोध, हम उसे समझें विनोद ।"3 जहां दृष्टिकोण इतना विधायक और उदार हो वहां विरोध की कोई भी स्थिति व्यक्ति को विचलित नहीं कर सकती। उस व्यक्तित्व के सामने अभिशाप वरदान में तथा शत्रुता मित्रता में परिणत हो जाती है। १. जैन भारती १७ सित० १९९१ । २. एक बूंद : एक सागर, पृ० १६३७ । ३. धर्मचक्र का प्रवर्तन, पृ० २६४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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