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________________ १०४ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण प्रत्यक्ष रूप में भाग लेने वाले कम और दुष्परिणामों का शिकार बनने वाले संसार के सभी प्राणी होंगे । युद्ध के भयावह परिणामों की उद्घोषणा करते हुए आचार्य तुलसी का कहना है--"युद्ध वह आग है, जिसमें साहित्यकारों का साहित्य, कलाकारों की कला, वैज्ञानिकों का विज्ञान, राजनीतिज्ञों की राजनीति और भूमि की उर्वरता भस्मसात् हो जाती है। इसी सन्दर्भ में उनके काव्य की निम्न पंक्तियां भी पठनीय हैं साथ उनके हो गईं कितनी कलाएं लुप्त हैं। युद्ध से उत्पन्न क्षति भी क्या किसी से गुप्त है। देखते ही अमित जन-धन का हुआ संहार है। हाय ! फिर भी रक्त की प्यासी खड़ी तलवार है ॥ वैयक्तिक अहंकार, सत्ता की महत्त्वाकांक्षा, स्वार्थ तथा स्वयं को शक्तिशाली सिद्ध करने की इच्छा आदि युद्ध के मूल कारण हैं। आचार्य तुलसी मानते हैं कि युद्ध मूलतः असन्तुलित व्यक्ति के दिमाग में उत्पन्न होता है। युद्ध और अहिंसा के बारे में भारतीय मनीषियों ने गहन चिंतन किया है । भारत-पाक युद्ध के समय रामधारीसिंह दिनकर आचार्य तुलसी के पास आकर बोले- "आचार्यजी ! आप न तो युद्ध को अच्छा समझते हैं, न समर्थन करते हैं और न ही युद्ध में भाग लेने हेतु अनुयायियों को आदेश देते हैं। देश के ऊपर आए ऐसे संकट के समय में आपकी अहिंसा क्या कहती है ? आचार्य तुलसी ने इस प्रश्न का सटीक एवं सामयिक उत्तर देते हुए कहा--- "मैं युद्ध को न अच्छा मानता हूं और न समर्थन ही करता हूं-यहां तक इस कथन में अवश्य सचाई है किन्तु युद्ध में भाग लेने का निषेध करता हूं, यह कहना सही नहीं है। क्योंकि जब तक समाज के साथ परिग्रह जुड़ा हुआ है, मैं हिंसा और युद्ध की अनिवार्यता देखता हूं। परिग्रह के साथ लिप्सा का गठबंधन होता है। लिप्सा भय को जन्म देती है और भय निश्चित रूप से हिंसा और संघर्ष को आमंत्रण देता है। समाज में जीने वाला और समाज की सुरक्षा का दायित्व ओढ़ने वाला आदमी युद्ध के अनिवार्य कारणों को देखता हुआ भी नकारने का प्रयत्न करे----इसे मैं खण्डित मान्यता मानता हूं।" युद्ध की परिस्थिति अनिवार्य होने पर समाज के कर्तव्य का स्पष्टीकरण करते हुए उनका निम्न कथन न केवल चौंकाने वाला, अपितु करणीय की ओर यथार्थ इंगित करने वाला है-"जहां व्यक्ति युद्ध के मैदान से भागता १. एक बूंद : एक सागर, पृ० ११४२ । २. भरतमुक्ति, पृ० १०० ३. जैन भारती, १८ अग० १९६८ । ४. अणुव्रत : गति प्रगति पृ० १४७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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