SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०० आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण अभाव में सफल नहीं हो सकती। अतः अहिंसात्मक प्रतिरोध हेतु ईमानदार और बलिदानी व्यक्तियों की आवश्यकता है अन्यथा इसकी आवाज का मूल्य अरण्य रोदन से अधिक नहीं होगा। अनुशास्ता होने के कारण आचार्य तुलसी ने अपने जीवन में अहिंसात्मक प्रतिरोध के अनेक प्रयोग किए, जो सफल रहे। कलकत्ता की धार्मिक सभाओं में मनोमालिन्य चरम सीमा पर पहुंच गया। जयपुर चातुर्मास के दौरान आचार्य तुलसी ने एकासन तप प्रारम्भ कर दिया, साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया कि मैंने जो संकल्प किया है, वह दबाव डालने हेतु नहीं है। मैं दबाव को हिंसा मानता हूं। यदि इससे भी हृदय परिवर्तन नहीं हुआ, तो मैं और भी तगड़ा कदम उठा सकता हूं।' आचार्यश्री के इस अहिंसात्मक प्रतिरोध से पारस्परिक सौहार्द एवं सामंजस्य का सुन्दर वातावरण निर्मित हुआ और उलझी हुई गुत्थी को एक समाधायक दिशा मिल गई। अहिंसा सार्वभौम द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका से त्रस्त होकर अहिंसा और शांति के क्षेत्र में कार्य करने वाली कुछ अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं का उदय हुआ। जैसे संयुक्त राष्ट्र संघ, इन्स्टीट्यूट फोर पीस एण्ड जस्टीस, इंटरनेशनल पीस रिसर्च. कोपरेशन फोर पीस तथा गांधी शांति सेना आदि । उसी परम्परा में आचार्य तुलसी ने अणुव्रत आंदोलन के अन्तर्गत 'अहिसा सार्वभौम' की स्थापना करके अहिंसा के इतिहास में एक नयी कड़ी जोड़ने का प्रयत्न किया है। उन्होंने अहिंसा का ऐसा सर्वमान्य मंच उपस्थित किया है, जहां से अहिंसा की आवाज दिगन्तों तक पहुंच सकती है। एक ओर मनुष्य की शांति प्राप्त करने की चाह तो दूसरी ओर घातक परमाणु अस्त्रों का निर्माण---इस विसंगति को तोड़कर अहिंसा को प्रयोग से जोड़ने एवं उसके प्रति आस्था निर्मित करने में अहिंसा सार्वभौम ने अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। प्रसिद्ध साहित्यकार जैनेंद्रजी आदि अनेक विद्वान् इस कार्यक्रम के साथ जुड़े । आचार्य तुलसी अहिंसा सार्वभौम को एक बहुत बड़ी क्रांति मानते हैं । इसकी व्याख्या करते हुए वे कहते हैं-"अहिंसा सार्वभौम में अहिंसा के गुणगान नहीं हैं, अहिंसा की परिभाषा नहीं है, अहिंसा की व्याख्या नहीं है, इसमें है अहिंसा का अनुशीलन, शोध और उसके प्रयोग । प्रायोगिक होने के कारण यह एक वैज्ञानिक प्रस्थापना है। 'राजस्थान विद्यापीठ' उदयपुर के संस्थापक जनार्दन राय नागर ने १. जैन भारती, २८ दिसम्बर, १९७५ २. सफर : आधी शताब्दी का, पृ० ६१। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy