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________________ ६ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण भाषा-शैली का यह वैशिष्ट्य आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के बाद आचार्य तुलसी के साहित्य में ही प्रचुर मात्रा में देखा जा सकता है। इस शैली में व्यक्त तथ्य को पाठक पढ़ता ही नहीं, अपितु मन-ही-मन उसका उत्तर भी सोचता है। प्रश्नों के माध्यम से मानव-मन के अन्तर्द्वन्द्वों को प्रस्तुत करने से पाठक और लेखक के बीच संवाद-शैली जैसी जीवन्तता बनी रहती है। पाठक केवल मूक ही नहीं बना रहता । निषेध में विधेय को व्यक्त करने की उनकी अपनी शैलीगत विशेषता hcho "मैं नहीं मानता कि संयम और समर्पण दो वस्तु हैं।" आचार्य तुलसी धर्माचार्य होते हुए भी एक महान् ताकिक हैं। वे अपनी बात को सहेतुक प्रस्तुत करते हैं । अतः उनकी भाषा में प्रायः कारण एवं कार्य की लम्बी श्रृंखला रहती है। उदाहरण के लिए भगवान् महावीर के व्यक्तित्व को प्रस्तुति देने वाली निम्न पंक्तियों को देखा जा सकता है---- "वे यथार्थवादी थे, इसलिए अति कल्पना की चौखट में उनकी आस्था फिट नहीं बैठती थी। वे अनेकांतवादी थे, इसलिए किसी भी तत्त्व के प्रति उनके मन में कोई पूर्वाग्रह नहीं था। वे सत्य के साक्षात् द्रष्टा थे, इसलिए उनकी अवधारणाओं का आधार आनुमानिक नहीं था। वे भरे हुए अमृतघट थे, इसलिए किसी उपयुक्त पात्र की प्रतीक्षा करते रहते थे। उनके साहित्य में केवल कारण एवं कार्य की ही चर्चा नहीं रहती, परिणाम का स्पष्टीकरण भी रहता है। उनका शैलीगत चातुर्य निम्न पंक्तियों में देखा जा सकता है, जहां कारण, कार्य एवं परिणाम-तीनों को एक ही वाक्य में समेट दिया गया है--- ____ 'आर्थिक क्रांति हुई, अर्थ-व्यवस्था बदली पर अर्थ के प्रति व्यामोह कम नहीं हुआ । सैनिक क्रांति हुई, शासन बदला पर जनता सुखी नहीं हुई। सामाजिक क्रांति हुई, समाज को बदलने का प्रयत्न हुआ, जातीय बहिष्कार जैसी घटनाएं भी घटीं पर स्वस्थ समाज की संरचना नहीं हुई।"२ किसी भी तथ्य के निरूपण में वे ऐकान्तिक हेतु प्रस्तुत नहीं करते। यद्यपि सुख की धारणा के बारे में पाश्चात्य एवं प्राच्य अनेक चिंतकों ने पर्याप्त चिंतन किया है, पर इस बिन्दु पर आचार्य तुलसी का चिंतन संतुलित होने की प्रतीति देता है __"सुख का हेतु अभाव भी नहीं है और अतिभाव भी नहीं है, क्योंकि अतिभाव में विलासिता का उन्माद बढ़ता है, जिसके पीछे संरक्षण का रौद्र भाव रहता है तथा अभाव में अन्य अपराध बढ़ते हैं क्योंकि उसके पीछे प्राप्ति १. बीती ताहि विसारि दे, पृ० ४९ २. नैतिक संजीवन, पृ० ५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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