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________________ आ• तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण सकता है-- पत्रकारों की एक विशेष गोष्ठी में एक पत्रकार ने आचार्य तुलसी के समक्ष जिज्ञासा प्रस्तुत करते हुए कहा ---'आचार्य जी! आपने समाज के हर वर्ग के उत्थान की बात कही है। आप कायस्थों के लिए भी कुछ कर रहे हैं क्या?' आचार्य तुलसी ने कायस्थ शब्द की दार्शनिक व्याख्या करते हुए कहा - "हम कायस्थों के लिए सदा से करते आ रहे हैं। क्योंकि आपकी तरह मैं भी कायस्थ हूं । कायस्थ अर्थात् शरीर में स्थित रहने वाला। संसार का कौन प्राणी कायस्थ नहीं है ?" हिन्दी में प्रायः क्रिया वाक्यान्त में लगती है पर भाषा में प्रभावकता लाने के लिए उनके साहित्य में अनेक स्थलों पर इस क्रम में व्यत्यय भी मिलता है-- __ "कैसे हो सकती है वहां अहिंसा जहां व्यक्ति प्राणों के व्यामोह से अपनी जान बचाए फिरता है ?" __ आचार्य तुलसी शब्द को केवल उसके प्रचलित अर्थ में ही ग्रहण नहीं करते । प्रसंगानुसार कुछ परिवर्तन के साथ उसे नवीन संदर्भ भी प्रदान कर देते हैं। इस संदर्भ में निम्न वार्तालाप द्रष्टव्य है-- ___ एक बार एक राष्ट्रनेता ने निवेदन किया-'आचार्यजी ! यदि आपको अणुव्रत का कार्य आगे बढ़ाना है तो प्लेन खोल दीजिए । आचार्यश्री ने स्मित हास्य बिखेरते हुए कहा-~-'आप प्लेन की बात करते हैं, हमारे प्लान (योजना) को तो देखो।' इस घटना से उनकी प्रत्युत्पन्न मेधा ही नहीं, शब्दों की गहरी पकड़ की शक्ति भी पहचानी जा सकती है । ___ इसी प्रकार प्रसंगानुसार एक शब्द के समकक्ष या प्रतिपक्ष में दूसरे सानुप्रासिक शब्द को प्रस्तुत करके प्रेरणा देने की कला में तो उनका कोई दूसरा विकल्प नहीं खोजा जा सकता। वे कहते हैं ___० प्रशस्ति नहीं, प्रस्तुति करो, व्यथा नहीं, व्यवस्था करो, चिंता नहीं चिंतन करो। ० मुझे दीनता, हीनता नहीं, नवीनता पसंद है। लाडनं विदाई समारोह में विश्वविद्यालय के सदस्यों को प्रेरणा देते हुए वे कहते हैं- "जीवन में संतुलन रहना चाहिए। न अहं न हीनता, न आवेश न दीनता, न आलस्य और न अतिक्रमण ।" .. सूक्तियों में जीवन के अनुभवों का सार इस भांति अभिव्यक्त होता है कि मानव का सुषुप्त मन जग जाए और वह उसे चेतावनी के रूप में ग्रहण कर सके । उनके साहित्य में गागर में सागर भरने वाले हजारों सूक्त्यात्मक वाक्य हैं, जिनसे उनकी भाषा चुम्बकीय एवं चामत्कारिक बन गयी है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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