SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उसकी सीमा रहेगी। भगवान महावीर की निर्ग्रन्थता ने ही उनको असीम बना दिया। वे केवली बने, आत्म-साक्षात्कार किया। साक्षात्कार वही करते हैं जो निर्ग्रन्थ बन जाते हैं। अनुभव उन्हीं का जागता है जो निर्ग्रन्थ बन जाते हैं। एक व्यक्ति गाड़ी में माल भर, गांव की ओर आने लगा। सूर्य ढलने लगा, सोचा-इधर से जाऊंगा तो चुंगी लगेगी। कहीं दूर से प्रवेश करना चाहा। अंधेरा बढ़ता गया और वह भटक गया। भटकते-भटकते प्रकाश के समय वह उसी जगह पर पहुंचा जहां से वह चुंगी के लिए टला था। अब वह पश्चात्ताप करने लगा। कोई गाड़ीवान राजमार्ग को छोड़कर विषम मार्ग पर चला जाता है। ऊबड़-खाबड़ मार्ग पर चलने से गाड़ी की धुरी टूट जाती है तब पश्चात्ताप करता है। वैसे ही, जो धर्म के राजपथ को छोड़ अधर्म के विषम पथ पर चले जाते हैं, वे वैसा ही पश्चात्ताप करते हैं जैसा कि भटकने पर गाड़ीवान करता है। हम पहले निर्ग्रन्थता समझें, धर्म को समझें। हमें समझने के लिए साधन चाहिए। भगवान महावीर को साधनों की अपेक्षा नहीं थी। वे शास्त्र नहीं पड़े, ग्रन्थ नहीं पढ़े। यदि उनका रास्ता लें तो हमें भी पढ़ने की आवश्यकता नहीं है। हम सब महावीर नहीं बन सकते। उनका मार्ग दुर्गम था। भगवान महावीर ने बारह वर्ष तक तपस्या की। क्या यह कठोर कार्य है? नहीं, मेरी दृष्टि में नहीं है। उपवास करना मात्र कठोर नहीं है। कठोर चर्या है-ध्यान की साधना। भगवान ने तपस्या की, उसको हमने पकड़ लिया, पर मूल को छोड़ दिया। प्रश्न होता है-भगवान ने ध्यान के लिए तपस्या की या तपस्या के लिए तपस्या की? धर्म के साधन-तपस्या और ध्यान में ३७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003116
Book TitleDharma ke Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy