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________________ भविष्य की परिधि : वर्तमान का केन्द्र 'इक्षुवद् विरसाः प्राप्ते, सेविताः स्युः परे रसाः । रसः शान्तस्तु सुतरां सरसः स्यात् परात् परः ॥ अध्यात्म योगी आचार्य ने लिखा है - ईख सरस और मीठा होता है । उसके लिए व्यक्ति का मन ललचा जाता है । ईख को चूसने के बाद वह विरस हो जाता है। आदि में सरस होता है और अन्त में विरस हो जाता है । शान्त रस का क्रम इससे विपरीत है । शान्त रस आदि में सरस नहीं लगता, किन्तु जैसे-जैसे उसका ... अभ्यास बढ़ता है, उत्तरोत्तर वह सरस बनता जाता है । जिसने कायोत्सर्ग का अभ्यास कर लिया, वह खाना छोड़ सकता है, पर कायोत्सर्ग नहीं छोड़ सकता । जप का अभ्यास करने पर जप किए बिना पानी भी नहीं पीता । चाहे कितनी ही देर क्यों न हो जाए, वह जप करके ही आहार ग्रहण करता है । शांत रस प्रारंभ में इतना सरस प्रतीत नहीं होता, परन्तु अन्त में वह सरस बनता जाता है । संस्कृत की सरसता कालूगणी हम लोगों को संस्कृत पढ़ने के लिए प्रेरणा देते Jain Education International भविष्य की परिधि : वर्तमान का केन्द्र १६५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003116
Book TitleDharma ke Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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