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________________ सौकुमार्य पर मुग्ध हो गया। गोद में बैठाया। शालिभद्र को राजा का स्पर्श कठोर लगने लगा। जब राजा चला गया तो माता ने पुत्र को देखा, वह अनमना-सा लग रहा था। माता ने पूछा-आज ऐसे क्यों हो? क्या सोच रहे हो? पुत्र बोला-जो सोचना था वह सोच लिया। मैंने अपना निर्णय ले लिया है। मां! अपने में जो प्रकाश होता है, दूसरे का स्व बनने में उसका विनाश होता है। जो शालिभद्र कभी सीढ़ियों से नीचे नहीं आता था, आज वह घर में रहने को तैयार नहीं है। वह प्रव्रजित होकर अकिंचन जीवन जीना चाहता है, स्वतंत्र होना चाहता है। कोई भी स्वाभिमानी परतन्त्रता को स्वीकार नहीं करता। अपने भाग्य का निर्णय अपने हाथों करना चाहता है। स्वतंत्रता सबसे बड़ा सुख है। कर्म संस्कारों का नाश कर स्वतंत्रता की प्राप्ति करनी है। जो धार्मिक बनता है वह इसलिए कि स्वतंत्र बन सके। आप जानते हैं हम कितनी परतंत्रता का जीवन जीते हैं और कितनी स्वतंत्रता की सांस लेते हैं? शराबी का शरीर ट्टने लग जाता है, शराब का समय आते ही उसे शराब चाहिए। अफीमची और गांजा पीने वाले को भी समय पर नशा करना होता है। हमारे जीवन में जाने-अनजाने कितनी परतंत्रता है। क्या हम संस्कारों से बंधे हुए नहीं हैं? दुनिया में ऐसे भी लोग हैं जिनको गाली देने में ही आनन्द आता है, और पीटने में सुख का अनुभव होता है। संस्कारों का बन्धन सचमुच बन्धन है। विचार के बाद संस्कार बनते हैं। विचार के बाद प्रायश्चित्त करने से संस्कार नहीं बनते। चलते हैं तो चरण-चिह्न अंकित होते हैं। आंधी आने से वे मिट जाते हैं। आंधी न आने पर ११४ में धर्म के सूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003116
Book TitleDharma ke Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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