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________________ ६८/भगवान् महावीर आंतरिक और स्वरूपगत समानता को भुला देने वाला अहिंसक नहीं हो सकता। अहिंसक वही हो सकता है जिसकी दृष्टि बाहरी भेदों को पार कर आंतरिक समानता को देखती रहती है।' जो आतंरिक समानता को नहीं देखता, वह अपने को उच्च और दूसरों को नीच मानता है अथवा अपने को नीच और दूसरों को उच्च मानता है। वह दूसरों से घृणा करता है या दूसरों द्वारा स्वयं को घृणित अनुभव करता है। वह दूसरों को भी डराता है या दूसरों से डरता है। ये अहंभाव और हीनभाव की मनोवृत्तियां विषमता पैदा करती हैं। जहां विषमता होती है वहां हिंसा निश्चित होती है। यह समता का सिद्धान्त सामाजिक व्यवहार का अतिक्रमण नहीं है, उसका सम्यक्करण है। व्यवहार की भूमिका में भी जितना समानता का बर्ताव होता है उतना ही प्रेम बढ़ता है, जितना प्रेम बढ़ता है उतनी ही व्यवस्थाएं अच्छे ढंग से चलती हैं, हिंसा कम होती है। हम तात्कालिक परिस्थितियों से प्रभावित होकर बाहरी आवरणों में उलझकर आन्तरिक समानता को भूल जाते हैं। हमारा मन हमारे हाथ में नहीं है, इसलिए विषमता का मानस बना लेते हैं। भगवान् ने कहा-'मनुष्य! तुम अनादिकाल से संसार में जन्म ले रहे हो। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं जिसके तुम माता-पिता, पुत्र, भाई आदि न हुए हो। फिर किसे तुम मित्र मानोगे और किसे शत्रु? किसे तुम उच्च मानोगे और किसे नीच? किससे घृणा करोगे और किसे अपनाओगे? तुम आज ही नहीं जन्मे हो इसलिए तात्कालिक दृष्टि से मत देखो। तुम पुराण-पुरुष हो, इसलिए दीर्घकालीन दृष्टि से देखो। आत्मा और आत्मा के बीच जो कर्ता है उसका अनुभव करो। एकाग्रता के अभ्यास के द्वारा मन को वश में करो। इतना होने पर तुम्हारी सिद्धान्तगत, स्वरूपगत और मानस-स्तरीय समता सध जाएगी। समता सधी कि अहिंसा सध जाएगी। जहां समता वहां अहिंसा। जितनी समता उतनी अहिंसा। समता का अर्थ है समभाव, न राग और न द्वेष। न आकर्षण और न विकर्षण। न इधर झुकाव और न उधर झुकाव । ताराजू के दोनों पलड़े बराबर । जिस व्यक्ति या समाज का अन्त:करण समता से स्नात हो जाता है, उसका व्यवहार विषम नहीं होता, उसकी व्यवस्था विषमता से पूर्ण नहीं होती। भगवान् ने कहा-'कोई दु:ख नहीं चाहता, इसलिए किसी को दु:ख मत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003115
Book TitleBhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages110
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Children, & Principle
File Size5 MB
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