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________________ ३. साधना-काल तपोभूमि वर्द्धमान ने श्रमण होते ही अपने घर की सारी सुरक्षा की दीवारें हटा दीं। उसको सबके लिए मुक्त कर दिया। अब कोई भी आ सकता है। किसी के लिए प्रवेश निषिद्ध नहीं है। सबका स्वागत, फिर कोई किसी रूप में आए। उनकी तपस्या इस अभिग्रह से प्रारम्भ हुई-मैं अपने आपको कैवल्य के लिए समर्पित करता हूं। उसकी साधना के लिए इस देह का विसर्जन करता हूं। मैं दैवी, मानवीय और तैरश्चिक-किसी भी उपसर्ग को सहन करूंगा, किन्तु साधना मार्ग से विचलित नहीं होऊंगा। श्रमण वर्द्धमान की साधना संकल्प से शुरू हुई। इस संकल्प ने उनके पराक्रम को प्रस्फुटित कर दिया। पराक्रम किसमें नहीं होता? हर मनुष्य में उसके बीज छिपे रहते हैं। जो संकल्प की कुंजी घुमाता है उसके पराक्रम का द्वार खुल जाता है और जो संकल्प की कुंजी को घुमाना नहीं जानता उसका पराक्रम सोया हुआ रह जाता है। श्रमण वर्द्धमान संकल्प की शक्ति से परिचित थे। उन्होंने उसका उपयोग किया। उनका पराक्रम जाग उठा। जिसका पराक्रम सोया हुआ रहता है वह आदमी भयभीत होता है। और भयभीत मनुष्य ही अपनी सुरक्षा के लिए सीमा बांधकर रहता है। कोई भी भीरु मनुष्य सीमामुक्त नहीं हो सकता। श्रमण वर्द्धमान अभय हो गए। उनकी पुरानी सीमाएं टूट गईं। समूचा जगत् उनके अभय की प्रयोग-भूमि बन गया। भय होता है शरीर को। श्रमण वर्द्धमान ने शरीर की ममता का विसर्जन कर दिया। वे अभय हो गए। भय होता है परिग्रह को। उन्होंने परिग्रह का विसर्जन कर दिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003115
Book TitleBhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages110
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Children, & Principle
File Size5 MB
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