SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९६/भगवान् महावीर -मैं निन्दनीय की निन्दा और गर्हणीय की गर्दा करता हूं। मैं आभ्यन्तर और बाह्य-समस्त उपाधि की आलोचना करता ८४. जा गदी अरहताणं, णिट्ठिट्ठाणं च जा गदी। जा गदी वीदमोहाणं, सा मे भवद् सस्सदा ।। (मूला. २/१०७) -जो गति अर्हतों को प्राप्त हुई है, जो गति सिद्धों को प्राप्त हुई है, जो गति वीतरागों को प्राप्त हुई है, वही शाश्वत गति मेरी है। ८५. जहां जुन्नाई कट्ठाई, हव्ववाहो पमत्थति । एवं अत्त-समाहिए अणिहे ।। (आ. ४/३/३३) - -जैसे अग्नि जीर्ण काष्ठ को शीघ्र जला डालती है, वैसे ही समाहित आत्मा वाला तथा अनासक्त साधक कर्म शरीर को प्रकंपित, कृश और जीर्ण कर डालता है। ८६. जे इह सायाणगा णरा, अज्झोववण्णा कामेहि मच्छिया। किवणेण समं पगभिया, ण वि जाणंति समाहिमाहियं ।। (सृ. १/२/५८) -सुख के पीछे दौड़ने वाले, आसक्त, काम-मूर्च्छित और कृपण के समान ढीठ मनुष्य समाधि को नहीं जान पाते। ८७. झाणणिलीणो साहू, परिचागं कुणइ सव्वदोसाणं । तम्हा दु झाणमेव हि, सव्वदिचारस्स पडिक्कमणं ।। (नियमसार ६३) -ध्यान में लीन साधु सब दोषों का परित्याग करता है, इसलिए ध्यान ही सब दोषों का प्रतिक्रमण है-उपचार है। ८८. जो झायइ अप्पाणं, 'परमसमाही हवे तस्स ।। . (नियमसार १२३) - जो आत्मा का ध्यान करता है, उसे परम समाधि प्राप्त होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003115
Book TitleBhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages110
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Children, & Principle
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy