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________________ दर्शन और उद्बोधन/९३ ६६. जो सुत्तो ववहारे, सो जोइ जग्गए सकज्जम्मि । जो जग्गदि ववहारे, सो सुत्तो अप्पणो कज्जे ।। (मोक्षपाहुड़ ३१) -जो योगी व्यवहार में सोता है वह स्व-कर्म-आत्म कार्य में जागता है। जो व्यवहार में जागता है वह आत्म-कार्य में सोता है। ६७. जम्मं मरणेण समं, संपज्जइ जव्वणं जरासहियं । . लच्छी विणाससहिया, इय दव्वं भंगुरं मुणइ ।। (कार्तिकेयानुप्रेक्षा ५) -जन्म के साथ मरण, यौवन के साथ बुढ़ापा और सम्पत्ति के साथ विनाश सदा लगा रहता है। इस प्रकार संसार के सब पदार्थ क्षणभंगुर हैं। ६८. धीरेण वि मरिदव्वं णिद्धीरेण वि अवस्स मरिदव्वं । जहि दोहिं वि मरिदव्वं, वरं हि धीरत्तणेण मरिदव्वं ।। (मूलाचार २/१००) -धैर्यशाली भी मरता है और कायर भी मरता है। जब दोनों की मृत्यु अवश्यंभावी है तब अच्छा यही है कि मैं संक्लेशरहित होकर वीरतापूर्वक मृत्यु का वरण करूं। ६९. सीलेणवि मरिदव्वं, णिस्सीलेणवि अवस्स मरिदव्वं । जइ दोहिं वि मरियव्, वरं हु सीलत्तणेण, मरियव्व।। (मूलाचार २/१०१) -आचारवान् भी मरता है, और अनाचारी भी मरता है। जब दोनों की मृत्यु अवश्यंभावी है तब अच्छा यही है कि मैं आचारवान् होकर ही मृत्यु का वरण करुं। ७०. णत्थि भयं मरणसमं जम्मणसमंण विज्जदे दुक्खं । ___जम्मणमरणादकं छिंदि ममत्तिं सरीरादो।। (मूलाचार २/११९) -मृत्यु के समान दूसरा कोई भय नहीं है। जन्म के समान कोई दु:ख नहीं है। साधक ! तू जन्म और मरण-दोनों को नष्ट कर दे। शरीर के होने पर ये दोनों हैं अत: तू शरीर से ममत्व हटा ले। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003115
Book TitleBhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages110
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Children, & Principle
File Size5 MB
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