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________________ ८६ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता होगा ही नहीं। क्योंकि वह इस सचाई को जानता है, जान चुका है कि संयोग वियोग से संपृक्त है । वह सत्य के बारे में भ्रांत नहीं है । दुःख उसे होता है, जो सत्य के स्थान पर भ्रान्तियों को पालता जाता है। इस प्रकार ज्ञान के बारे में हमारी भ्रांति मिटनी चाहिए। शक्ति के बारे में भ्रान्ति नष्ट होनी चाहिए । शक्ति का प्रयोग जनकल्याण की दिशा में होता है तब उसे शक्ति कहा जाता, है अन्यथा वह संतापकारक बल है । जिस व्यक्ति की शक्ति का एक भी स्व-पर कल्याण के लिए लगता है तो वह व्यक्ति शक्तिशाली है । यही वास्तव में शक्ति है । जिसकी शक्ति का एक कण भी अपने अहित और दूसरे के अहित के लिए लगता है तो वह शक्ति नहीं, शक्ति की भ्रान्ति है, शक्ति का आभास है। पिता ने अपने पुत्र से कहा- 'बेटा ! तुम मल्ल बनो ।' वह बोला'पिताजी किसलिए?' पिता बोला- 'मल्ल इतना शक्तिशाली होता है कि वह दूसरे को पछाड़ देता है ।' पुत्र समझदार था । उसने कहा- 'पिताजी ! मैं ऐसी शक्ति नहीं चाहता जिसके आधार पर मैं दूसरों को पछाड़ सकूँ । मैं वैसी शक्ति चाहता हूं, जिसके आधार पर दूसरों को उठा सकुँ । मुझे पछाड़ने वाली शक्ति नहीं, उठाने वाली शक्ति चाहिए ।' यही है वास्तविक शक्ति । साधना का प्रयोजन है- स्वास्थ्य का विकास । इस पर हम कर्मशास्त्रीय दृष्टि से विचार करें, क्योंकि जो बात कही जा रही है वह निराधार नहीं है । आचरण और व्यवहार की बात, जो कर्मवाद को छोड़ कर कही जाती है, वह निराधार होती है । हम सोचें, स्वास्थ्य का स्रोत क्या है ? मोहनीय कर्म का उदय अस्वास्थ्य है और मोहनीय कर्म का उपशय, क्षय, क्षयोपशमयह स्वास्थ्य है । स्वास्थ्य है मोहनीय कर्म को उपशांत करना, उसको क्षीण करना या उसका क्षयोपशम करना । स्वास्थ्य का पूरा संबंध है मोहनीय कर्म से । 'स्वस्मिन तिष्ठतीति स्वस्थः'...जो अपने आप में स्थित होता है, वह है स्वस्थ । जो आत्मा की सन्निधि में रहता है, वह है स्वस्थ । सर्वाधिक स्वस्थ व्यक्ति वह होता है जिसके कषाय शांत हैं, जिसके रति-अरति, भय, शोक, घृणा, हास्य उपशान्त हैं, जिसकी वासना शांत है । इस प्रकार स्वस्थ होने के लिए ब्रह्मचर्य फलित हो गया, अभय फलित हो गया, प्रेम और मैत्री फलित हो गयी । स्वस्थ होने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003111
Book TitleMain Hu Apne Bhagya ka Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size12 MB
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