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________________ मन की शान्ति / ९५ सचाई होगी । पूरी सचाई नहीं होगी और समस्या के समाधान तक ले जाने वाली सचाई नहीं होगी । एकांगी दृष्टि से कोई भी बात पकड़ ली जाती है तो उलझन बढ़ जाती है । एक घटना है । कुछ पंडित काशी में विद्याध्ययन कर रहे थे । वे संस्कृत पढ़ते थे । काव्यों का पारायण करते थे । उनका विवेक जागृत नहीं था। वे प्रत्येक बात को एकांगी दृष्टिकोण से पकड़ते थे । एक दिन तीनों मित्र पंडित नदी के किनारे गेठ करने निकले । शहर के बाहर आए । इतने में एक ओर से ऊंट दौड़ता हुआ आ रहा था । एक छात्र पंडित बोला— देखो, वह जो तेज गति से आ रहा है, वह साक्षात् धर्म है । शास्त्र कहता हैधर्मस्य त्वरिता गतिः- धर्म की गति तीव्र होती है । यह धर्म है । दूसरे की दृष्टि वहां श्मशान घाट में खड़े गधे पर गयी । उसने शास्त्र की दुहाई देते हुए कहा— 'राजद्वारे श्मशाने च, यस्तिष्टति स बांधवः'- जो राजद्वर और श्मशान में रहता है, वह भाई होता है । तीसरा बोला- ठीक है, उचित कहा जा रहा है । शास्त्र के उस वक्य को मत भूलो— 'इष्ट धर्मेण योजयेत्'अपने इष्ट या बन्धु को धर्म के साथ जोड़ देना चाहिए | तत्काल तीनों ने गधे को पकड़ा, ऊंट को रोका और दोनों के पैर एक-दूसरे से बांध दिए । तीनों नदी के तट पर पहुंचे । रसोई की तैयारी करने लगे । एक नदी में उतरा । पानी का कलश भरकर ज्योंही आने लगा, उसका पैर फिसला और वह डूबने लगा । दूसरा छात्र पंडित तत्काल दौड़ कर आया और तेज चाकू से उसका सिर काट डाला ? तीसरे ने कहा- अरे ! यह क्या अनर्थ कर डाला ? वह बोला- कैसा अनर्थ ? धर्मशास्त्र कहते हैं— 'सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्द्ध रक्षति पंडितः'--सर्वनाश की स्थिति आने पर आधे को तो बचा ही लेना चाहिए । मैंने धड़ को बचा लिया | यह सारा एकांगी दृष्टिकोण का प्रतिफल है । हमारा दृष्टिकोण बहुत एकांगी होता है | हम सिद्धान्त को पढ़ते हैं, ग्रहण करते हैं । किन्तु एकांगिता से ग्रहण करते हैं । जहां एकांगिता होती है वहां सार्थकता कम होती है, अनर्थ की संभावना अधिक रहती है। शायद हमने भी इस बात को एकांगी दृष्टि से समझा है कि व्यक्ति समाज का हिस्सा है । जैसा सामाजिक वातावरण होता है, वैसा व्यक्ति बनता है । यह झूठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003111
Book TitleMain Hu Apne Bhagya ka Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size12 MB
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