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________________ संवाद : नाथ और अनाथ के बीच २६६ से। व्यवहार है एक ही पदार्थ में निमित्त और संयोग से होने वाले भावों का ग्रहण । व्यवहार नय के दो भेद हैं सद्भूत व्यवहार-एक ही द्रव्य में भेद करने वाली दृष्टि। असद्भूत व्यवहार-अनेक भिन्न द्रव्यों में अभेद दृष्टि। असद्भूत व्यवहार के दो भेद हैं-उपचरित असद्भूत और अनुपचरित असद्भूत। हम उपचार से चलते हैं। दो वस्तुएं एक साथ रह रही हैं। दूध अलग है, पानी अलग है। आत्मा अलग है, शरीर अलग है। एक क्षेत्र में दोनों रह रहे हैं। शरीर और आत्मा-दोनों साथ-साथ रह रहे हैं। अगर कहा जाए-शरीर को अलग करो और आत्मा को अलग करो तो बचेगा क्या? इतने मिले हुए हैं ये दो पदार्थ। उनमें यह शरीर मेरा है, इस प्रकार का आरोपण करना, उच्चारण करना असद्भूत अनुपचरित व्यवहार है। __ हम दो पदार्थों में, जो बिल्कुल अलग-अलग रह रहे हैं, एकत्व का आरोपण कर देते हैं। मेरा घर, मेरा धन, यह आरोपण हो गया। घर अलग है, धन अलग है और मैं अलग हूं पर आरोपण कर दोनों को एक मान लिया। यह असद्भूत उपचरित व्यवहार है। भेद है भूमिका का अनाथी मुनि जो कह रहे हैं और सम्राट श्रेणिक जो कह रहे हैं, उन दोनों की हम मीमांसा करें। कहा कौन सा नय बोल रहा था। अगर हम नय की दृष्टि से बात को समझें तो सम्राट श्रेणिक और अनाथी मुनि अपने-अपने स्थान पर सही बात कह रहे थे। वे एक-दूसरे को समझ नहीं पा रहे थे क्योंकि उनमें सापेक्षता नहीं थी। राजा कह रहा था-मेरी सेना, मेरा नगर, मेरा महल, मैं उसका मालिक, यह उपचार है असद्भूत व्यवहार नय है। उसके आधार पर मनुष्य ऐसा कहता है किन्तु जब सचाई की दिशा में जाएंगे तो यह बात ठीक नहीं होगी। मुनि सचाई की भूमिका पर खड़े थे और राजा असद्भूत व्यवहार की सीढ़ी पर खड़ा था। दोनों की बात एक कैसे होगी? दोनों की भाषा एक नहीं हो सकती। भाव का भेद तो बहुत गहरी बात है, भाषा भी नहीं मिलती। क्योंकि भाषा और शब्द हमेशा भावों के अनुसार निकलते हैं। जो व्यक्ति जिस अर्थ को जानता है, वह उस भाषा को पकड़ लेगा। वह भाव को जानता नहीं है, इसलिए उसके मन में यह विचार उभरेगा-अमुक व्यक्ति झूठ बोल रहा है, गलत बोल रहा है या अज्ञान पूर्वक बोल रहा है। यह एक जटिल प्रश्न है। वही है नाथ __ हमारे सामने अनेकान्त का व्यापक दृष्टिकोण है। हमने उसे गहराई से समझा नहीं या उसका उपयोग नहीं किया। अगर अनेकान्त का गहरा अध्ययन हो तो शायद संघर्षों को कम करने की स्थिति आ जाए। उपचार की भाषा में राजा कह रहा था और किन्तु मुनि निश्चय की भाषा में बोले रहे थे। जब दोनों ने एक-दूसरे की बात को समझा, एक-दूसरे की अपेक्षा को समझा, अन्तर समाप्त हो गया। दोनों सहमत हो गए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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