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________________ ४१ संवाद : नाथ और अनाथ के बीच शिष्य ने जिज्ञासा की-'भंते! इस दुनिया में संघर्ष क्यों चलता है आरोप और प्रत्यारोप क्यों चलता है? एक कहता है-तू अज्ञानी है। दूसरा कहता है-तू अज्ञानी है। एक कहता है-तू झूठा है। दूसरा कहता है-तुम जानते ही नहीं। इस प्रकार का यह व्यवहार क्यों चलता है। इसका कारण क्या है? आचार्य ने कहा- 'वत्स! कारण क्या बताऊं? प्रकृति को मान्य यही है।' 'भंते! प्रकृति को यही मान्य क्यों है?' 'वत्स! आदमी क्या करे? प्रकृति में संघर्ष के बीज छिपे हुए हैं। मनुष्य की रचना ही ऐसी हो गई है कि उसमें संघर्ष, आरोप-प्रत्यारोप के बीज छिपे मिलते हैं। कारण यह है-भाव तो अदृश्य है, दिखाई नहीं देता और भाषा दृश्य है, सामने आती है। आधा तो दिखाई देता है और आधा दिखाई नहीं देता। यह है संघर्ष का बीज, जो प्रकृति में चारों तरफ बिखरा पड़ा है। यह भाषा और भाव का संघर्ष, यह दृष्टिकोण और भाषा का संघर्ष शायद मनुष्य जब से था तब से शुरू हुआ है और जब तक मनुष्य रहेगा तब तक चलेगा। अदृश्यो वर्तते भावो, दृश्या ततः भाषा स्फुटम् । संघर्षबीजमाकीर्ण, प्रकृती कि सृजेज्जनः।। तुलसीदासजी ने लिखा-वाणी बोलती है उसके आंख नहीं है। आंख देखती है उसके वाणी नहीं है-"गिरा अनयन नयन बिनु वाणी।' प्रकृति की रचना में कितना अधूरापन है। जो बोलता, वही देखता और जो देखता, वही बोलता तो शायद संघर्ष की संभावना बहुत कम हो जाती। कितना जटिल तंत्र है हमारा। हम शब्द को कान से सुनेंगे। कान से. सनने के बाद मन उसको ग्रहण करेगा, पकड़ेगा, उसका संकलन करेगा। सुनने वाला एक है, संकलन करने वाला दूसरा है और निर्णय करने वाला तीसरा है। विवेक या बुद्धि उसका निर्णय करेगी और फिर बोलने वाला चौथा है मुख। ये चार मिल गये-कान से सुना, मन ने उसको ग्रहण किया और विवेक मस्तिष्क ने उसको एक अर्थ-बोध दिया, फिर वाणी ने उसे उच्चरित किया। इतना पूरा तंत्र मिलता है, तब एक कार्य निष्पन्न होता है। जहां एक के हाथ में शासन नहीं होता वहां संघर्ष तो होता ही है। कहा गया-अनेक हाथों में शासन होता है तो संघर्ष होना स्वाभाविक है। यह शायद लोकतंत्र से पहले लिखा गया है, आज की बात नहीं है। आज तो अनेक लोगों का शासन होता है। जहां अनेक हाथों में शासन होता है वहां क्या होता है, यह भी स्पष्ट है। यह हमारा सारा तंत्र है, जिसको कहते हैं संभाग, परस्पर में विनिमय। संभाग होना एक बात है और एक दूसरे तक पहुंचना दूसरी बात है। इसकी इतनी जटिल प्रक्रिया है कि पूरी बात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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