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________________ १०८ महावीर का पुनर्जन्म जैन विश्व भारती परिसर में युवालोक के पास एक जनरल स्टोर है। प्रबंधक ने बताया-हमारे यहां पन्द्रह सौ आइटम हैं। मैंने पूछा-इनका क्या उपयोग है? उसने बताया-ये भी कम पड़ रहे हैं। हमें और चाहिए। एक मुनि से कहा जाए-नाममाला कण्ठस्थ करो, उसके पन्द्रह सौ श्लोक हैं। उसे इतने श्लोक कंठस्थ करना बहुत भारी लगता है। एक गृहस्थ को, जो रोज दुकान पर बैठता है, पन्द्रह सौ आइटम याद रखने पड़ते हैं। कब, कौन, किस चीज के लिए आ जाए, कोई पता नहीं चलता। जहां बड़े-बड़े जनरल स्टोर होते हैं, वहां हजारों-हजारों तरह के आइटम होते होंगे। इन सबको याद रखना बहुत मुश्किल होता है किन्तु एक गृहस्थ को यह दायित्व निभाना पडता है। उसके अनेक जिम्मेदारियां और अनेक प्रकार की चिन्ताएं होती हैं। आकर्षण क्यों? प्रश्न होता है-जब गृहस्थाश्रम इतना कठोर है तब व्यक्ति मुनि क्यों नहीं बन जाता? संन्यासी क्यों नहीं बन जाता? क्यों वह घर में बैठा रहता है? जब नमि राजर्षि बने, तब उनके साथ मिथिला का समाज मुनि क्यों नहीं बना? एक गृहस्थ मुनि क्यों नहीं बनता? एक गृहस्थ का घर के प्रति आकर्षण क्यों है? इसका कारण क्या है? अध्यात्म के क्षेत्र में इसका हेतु बतलाया गया इन्द्रियाणि प्रधानानि, मानसञ्चापि चंचलम्। __ कषायरंजिता भावाः, तावदाकर्षणं गृहे ।। जब तक इन्द्रियां प्रधान बनी हुई हैं, मन चंचल है और भाव कषायरंजित हैं तब तक घर के प्रति आकर्षण बना रहता है। इन्द्रियों की प्रधानता, मन की चंचलता और कषायात्मक भाव व्यक्ति को गृहस्थ जीवन में बनाए हुए हैं। जब तक व्यक्ति पर इन्द्रियों का आधिपत्य है, तब तक वह हजारों कष्ट सह लेगा किन्तु मुनि बनने की बात नहीं सोचेगा, घर छोड़ने की बात उसके मन में पैदा नहीं होगी। चारों ओर से इन्द्रियां व्यक्ति को खींच रही हैं। उस खिंचाव से मुक्त हुए बिना आकर्षण की दिशा में बदलाव नहीं आ सकता। जब तक मन की चंचलता है तब तक घर का आकर्षण कम नहीं हो सकता। जब मन चंचल होता है, व्यक्ति अपने आकर्षण की दिशा को परिवर्तित नहीं कर सकता। जब तक भाव कषाय से रंगे हुए हैं, घर का आकर्षण कम नहीं होता। जब व्यक्ति रंगीन चश्मा लगाता है तब उसे सब कुछ रंगीन ही दिखाई देता हैं। जिस व्यक्ति का मन कषाय से रंजित है, उसे लगेगा-जो सुख है, वह घर में ही है। घर के बाहर दुःख ही दुःख है। घर में रहना ही सुख है? पूज्य कालूगणी का चातुर्मास उदयपुर में था। चातुर्मास के दौरान दीक्षा हो रही थी। दीक्षा ले रहा था उदयपुर का एक किशोर। सारे उदयपुर में तहलका मच गया। औरों की बात ही क्या, बाजार में सब्जी बेचने वाले कुंजड़े-कुंजड़ी कहने लगे-देखो! बेचारा छोटा लड़का घर छोड़कर जा रहा है। इसने संसार में क्या भोगा? इसने क्या देखा संसार का सुख? इन स्वरों में उनकी पीड़ा बोल रही थी। उनको दीक्षा से क्या लेना-देना था, पर जब तक भाव कषाय से रंगे हुए हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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