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________________ जहां निरपराध को दंड मिलता है दक्षता हर बात में प्राप्त की जा सकती है। चोरी में बड़े दक्ष लोग हुए ६१ हैं । चिन्तन के दो कोण ब्राह्मण ने नमि राजर्षि से कहा- 'राजर्षि! आपकी नगरी में भी अनेक कुशल चोर हैं । आप सब चोरों को वश में करें, दण्ड दें, नगर में अभय का वातावरण बनाएं और फिर संन्यास ग्रहण करें आमोसे लोमहारे य, गंठिभेए य तक्करे । नगरस्स खेमं काऊण, तओ गच्छसि खत्तिया! राजर्षि शान्त भाव से बोले - 'ब्राह्मण! मेरा चिंतन दूसरे प्रकार का है । जैसे तुम सोचते हो वैसा मैं नहीं सोचता । मेरे सोचने का कोण भिन्न है ।' ब्राह्मण ने पूछा- 'आप क्या सोचते हैं?" राजर्षि ने कहा- 'बहुत बार मनुष्य मिथ्यादण्ड का प्रयोग करता । सही दंड का प्रयोग नहीं होता। जो अपराध करने वाला है वह बच निकलता है और जो निरपराध है, उसे दण्ड मिल जाता है । इस दंड में मेरा विश्वास नहीं हैअसई तु मणुस्सेहि, मिच्छादंडो पजुंजई । अकारिणो ऽत्थ बज्झति, मुच्चइ कारओ जणो ।। दंड भी जरूरी है दंड के क्षेत्र में दो प्रकार का चिंतन रहा है- एक दंड में विश्वास करने का और दूसरा दंड में अविश्वास करने का। महाभारत में कहा गया राजदंडभयादेके, पापाः पापं न कुर्वते । यमदंडभयादेके, परलोकभयादपि । । दंडश्चेन्न भवेल्लोके, विनश्येयुरिमाः प्रजाः । जब राजदंड का भय होता है तब अपराध कम होते हैं। राजदंड का भय निकल जाए तो अपराधों की बाढ़ जा जाए। उन्हें दंड के बिना रोका नहीं जा सकता। राजदंड का ही नहीं, मृत्यु दंड का भी भय रहता है । न जाने कब मौत आ जाए, इस भय से भी लोग अपराध करने से बचते हैं । परलोक के भय से भी लोग अपराध करने से बचते हैं । वे सोचते हैं - यहां बहुत बुराइयां करते हैं, न जाने आगे क्या फल मिलेगा? यमराज का दंड हो, राजा का दंड हो या परलोक का दंड, दंड आखिर दंड ही है । अगर दंड का भय निकल जाए तो सारी प्रजा विनष्ट हो जाए। जैसे बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है वैसे ही बलवान निर्बल को खाने लग जाए इसलिए दंड बहुत जरूरी है । आश्चर्य की बात यह चिंतन का एक कोण रहा है और इस चिंतन में दंड को बहुत प्रधानता दी गई है । जब से शासन चल रहा है, राजतंत्र चल रहा है तब से दंड चल रहा है। अगर दंड से अपराधों की समाप्ति होती तो आज अपराधों का अस्तित्व नहीं होता। पर ऐसा हुआ नहीं। इसका कारण है- मनुष्य का सोचने का तरीका सही नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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