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________________ ७८ जीवन विज्ञान : सिद्धान्त और प्रयोग जब हमारे पास होता है तो रास्ता चाहे पांच मील का हो, चाहे पचास मील का, प्रकाश अपना काम करेगा। उसमें कोई फर्क नहीं पड़ेगा । अन्तर्दृष्टि का प्रकाश जब व्यक्ति को मिल जाता है तो उसका पूरा रास्ता प्रकाशित हो जाता है। वह प्रकाशित रास्ता है - प्रयोग। हम प्रयोग करना सीखें। वर्तमान की समस्या को समाधान दें अपने प्रयोगों के द्वारा । बहुत छोटे-छोटे प्रयोग। एक है आयंबिल का प्रयोग । ध्यान करने वाले व्यक्ति आयंबिल का प्रयोग करते हैं, केवल थोड़ा-सा चावल खाते हैं, थोड़ा पानी पीते हैं और कुछ नहीं करते। उससे इतना अच्छा ध्यान होता है कि पूरा भोजन करने पर भी नहीं होता। खाने के बाद ध्यान कैसा होता है, पूरा खाने पर ध्यान कैसा होता है, और कम खाने पर ध्यान कैसा होता है, ये सारे प्रयोग बन गए। कम खाकर देखो कि ध्यान कैसा होता है और डटकर खाकर देखो कि ध्यान कैसा होता है, ठूंस कर खा लो, पानी व हवा के लिए भी जगह न रहे, आकंठ मग्न हो जाए, फिर ध्यान में उतरो, ध्यान कैसा होगा। ज्यादा खाकर ध्यान की संभावना ही हमने समाप्त कर दी । ध्यान कैसे उतरेगा ? ध्यान उतरेगा खाली में। ध्यान उतरेगा शून्य में । हमने तो शून्य को भर दिया। अवकाश ही नहीं रखा कि ध्यान उतर सके। थोड़ा खाकर देखो ऊनोदरी करके देखो। ध्यान कैसा होता है? यह एक प्रयोग है। उपवास करके देखो कि ध्यान कैसा होता है? यह तीसरा प्रयोग है। बहुत स्थूल बात लगती है। किन्तु प्रत्येक स्थूल बात के पीछे एक सूक्ष्म रहस्य छिपा होता है। उपवास, आयंबिल और अल्प भोजन के द्वारा अपने भीतर के रसायन बदलते हैं, शारीरिक-रासायनिक परिवर्तन होता है, जैविक - रासायनिक परिवर्तन होता है। आयंबिल के अनेक लाभ बतलाए गए हैं। पुराने ग्रंथों में बहुत वर्णन किया गया है आयंबिल के गुणों का। कुछ लोग यह मानते हैं यह हमारी एक भारतीय परम्परा है, किसी चीज पर बल देते हैं तो ज्यादा दे देते हैं। किसी को महत्त्व देते हैं तो बहुत ज्यादा महत्त्व दे देते हैं । हटयोग के ग्रन्थों में लिखा मिलेगा, मुद्रा का प्रयोग करो । मुद्रा 'जरामृत्युविनाशनम्' - बुढ़ापे को नष्ट कर देगी और मौत नहीं आएगी। जिन्होंने ये ग्रन्थ लिखे, वे बूढ़े भी हुए हैं और मरे भी हैं। यथार्थ का निरुपण जैन आगम कहते हैं- 'सव्वदुक्खविमोक्खणट्ठे करेमि काऊस्सग्गं'कायोत्सर्ग करो। सब दुःखों से छुटकारा मिल जाएगा। लगता है कि ये सब अतिशयोक्तियां कर दी गईं। किन्तु हम मुड़कर देखते हैं तो ऐसा लगता है कि ये अतिशयोक्तियां नहीं, ये आंतरिक अनुभवों के निरूपण हैं। जिन लोगों ने प्रयोग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003108
Book TitleJivan Vigyana Siddhanta aur Prayoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages236
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size9 MB
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